ईद-उल-फितर : खुशी और दान का महोत्सव
तप-त्याग-संयम का प्रतीक रमजान है, तो उसके फल का प्रतीक है ईद-उल-फितर। ईद का अर्थ ही है खुशी और फितर का अर्थ है दान। जब कोई व्यक्ति तप-त्याग और संयम का परिचय देता है, तो उसे स्वाभाविक ही खुशी मिलती है। अकेले-अकेले खुश रहना इंसानियत का गुण नहीं है, खुशी को फैलाना, दूसरों को भी खुशी देना इंसानियत है। आखिर दुनिया के गरीबों, शोषितों, पीडि़तों, वंचितों तक खुशी कैसे पहुंचेगी, जाहिर है, फितरा या दान करना पड़ेगा। दान धन का भी होगा और सामग्री का भी। अपनी सालाना कमाई का एक बहुत मामूली हिस्सा, जो लगभग 2.5 प्रतिशत ही होता है, बस वही गरीबों और जरूरतमंदों के बीच दान करना है, तभी खुशी सच्ची होगी। खुशी तभी सच्ची होगी, जब हर कोई खुश होगा।
रमजान का महीना खत्म हो जाता है और शव्वल महीने की शुरुआत होती है। शव्वल महीने के पहले ही दिन ईद-उल-फितर का आयोजन होता है। मिलकर इबादत, मिलकर नमाज, मिलकर खुशियां, मिलकर नए कपड़े, मिलकर पकवान से ही ईद-उल-फितर का आयोजन सफल होता है। यह सामाजिक मिठास और मेलजोल का एक ऐसा दिन है, जिसका इंतजार पूरे दुनिया के मुस्लिमों को होता है। किसी मुस्लिम बहुल देश में एक दिन, तो किसी देश में तीन दिन की छुट्टी रहती है।
पहली ईद कब मनी थी ?
पैगंबर मोहम्मद साहब विवश होकर मक्का से मदीना आ गए थे। मक्का उस दौर में भी अरब दुनिया का सबसे समृद्ध शहर था, अत: अरब दुनिया को प्रभावित करने के लिए मक्का पर अधिकार जरूरी था। मक्का और मदीना के बीच की दूरी करीब 350 किलोमीटर है, और बीच में एक जगह पड़ती है बद्र। मुस्लिम सेना ने यहां पहली बार मक्का के कुरैशों को युद्ध में मात दी थी। पैगंबर साहब के पास जो सेना थी, उससे तीन गुना बड़ी सेना मक्का के शासकों के पास थी। फिर भी युद्ध में पैगंबर साहब की सेना को फतह हासिल हुई। ईस्वी सन 624 में हुए इस युद्ध को जंग-ए-बद्र या बद्र की लड़ाई कहा जाता है। यह लड़ाई रमजान के महीने में ही हुई थी और उसके बाद जीत की खुशी में ईद-उल-फितर की शुरुआत हुई थी। अरब दुनिया को साफ तौर पर यह संदेश चला गया कि एक ऐसे पैगंबर या शासक का अवतरण दुनिया में हो गया है, जो केवल युद्ध नहीं करता, बल्कि खुशी, दान और मिलजुलकर रहने की बात करता है। बाद में दुनिया गवाह है कि जब ईद की खूबसूरती फैली, तो मक्का के लोगों ने खुशी से पैगबंर साहब के सामने समर्पण कर दिया।
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