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]]>दयानंद सरस्वती को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। यह कहा जाता है कि उन्होंने भारतीयों के मन को जगाया और तार्किक स्वाधीन सोचने के लिए प्रेरित व विवश किया। उन्होंने पूरा जीवन समाज को अंधविश्वास से उबारने में लगा दिया। समाज सुधार की दिशा में नाना पकार के प्रयोग किए। विश्व के तमाम महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथों का उन्होंने अध्ययन किया था। उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म ग्रंथों की विवेचना की, बल्कि उन्होंने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख इत्यादि धर्मों पर भी खूब गहराई से विचार किया था। ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार, 12 फरवरी 1824 को टंकारा, गुजरात में उनका जन्म हुआ था और 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में उनका निधन हुआ। उनका सबसे बड़ा काम यह है कि उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, एक ऐसा समाज जो आज भी संपूर्ण समाजों की सेवा कर रहा है।
दयानंद सरस्वती ने मूर्ति पूजा का खूब विरोध किया। वे जहां भी गए, उन्होंने बड़े-बड़े पंडितों को यह चुनौती दी कि वे सिद्ध करें कि वेदों में मूर्ति पूजा करने के बारे में कहां लिखा गया है। वे अपनी बात वेद और तर्क के आधार पर ही रखते थे। संस्कृत भाषा पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी थी और झूठ-कुतर्क-अंधविश्वास को वह तत्काल धूल चटा देते थे। इस कारण बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए थे। उनका प्रभाव इतनी जल्दी होता था कि भारत में हजारों लोगों ने अपने घर में रखी प्रतिमाओं को निकाल बाहर किया। बड़ी संख्या में मूर्तियों को नदियों में बहा दिया।
ऐसा नहीं है कि दयानंद सरस्वती केवल हिन्दुओं की कमियों पर प्रहार करते थे। उन्होंने जब भी मौका मिला, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख इत्यादि धर्म से जुड़ी कमियों को भी सबके सामने रखा। वह बाइबिल के सहारे ही ईसाइयों की कमियों को दर्शा देते थे। वे कुरआन की भी कमियों पर उंगली रख देते थे। इस मामले में उनकी रचना ‘सत्यार्थप्रकाश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने तर्क देकर अंधविश्वासों पर प्रहार किया है। वे सच बोलने में पीछे नहीं रहते थे और तर्क के लिए हमेशा तैयार रहते थे। जिस वैज्ञानिक व तार्किक विधि से उन्होंने हिन्दू धर्म को देखा, ठीक उसी तरह से उन्होंने दूसरे धर्मों को भी देखा।
देश में राजा लोग कई शादियां करते थे और रखैलें भी रखते थे। जोधपुर के तत्कालीन राजा जसवंत सिंह जी की भी एक प्रिय रखैल थी – नन्हीं जान। राजा का काफी समय नन्हीं जान के साथ गुजरता था। एक दिन दयानंद जी ने राजा को नन्हीं जान की पालकी को कंधा लगाते देख लिया, फिर क्या था – उन्होंने राजा को प्रवचन दिया कि राजाओं के ऐसे ही कृत्यों और अय्याशियों की वजह से देश की दुर्दशा हुई है। वे खूब नाराज हुए, यहां तक कह दिया कि – सिंह अब कुत्तों का अनुकरण करने लगे हैं। राजा में तत्काल सुधार आया, लेकिन नन्हीं जान दयानंद जी की दुश्मन बन गई। जोधपुर में गहरा षडयंत्र हुआ, जिसमें दयानंद से नाराज चल रहे अंग्रेजों का भी हाथ बताया जाता है। उन्हें 29 सितंबर 1883 को पीने के लिए दूध दिया गया, जिसमें कांच के बहुत बारिक टुकड़े मिलाए गए थे। दयानंद जी की सेहत बिगड़ गई। उन्होंने दोषियों को कुछ न कहा, बल्कि दूध में कांच मिलाने वाले रसोइए को जोधपुर से जान बचाकर भागने में भी मदद की। इलाज कठिन था, लेकिन उसमें कोताही हुई। 16 अक्टूबर को उनके शिष्य उन्हें लेकर जोधपुर से निकले और माउंट आबू, उदयपुर पहुंचे। वहां से इलाज के लिए 27 अक्टूबर को अजमेर लाया गया। जहां दीपावली के दिन 30 अक्टूबर की शाम दयानंद जी ने भिनाय कोठी पर अपना शरीर त्याग दिया। उनकी इच्छा के अनुसार, उनका अवशेष जहां बिखेरा गया, वहां आज ऋषि उद्यान है, अन्नासागर-अजमेर के किनारे।
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]]>खास बात यह है कि प्रोफेट की एक ही परंपरा से यहूदी, ईसाई और मुस्लिम जुड़े हुए हैं, बहाई मत या धर्म को भी इसी प्रोफेट परंपरा में माना जा सकता है। चारों ही धर्म एक ही प्रोफेट परंपरा को मानते हैं। अब यह बात अलग है कि धर्म के हिसाब से कोई किसी प्रोफेट को कम मानता है और किसी को ज्यादा मानता है।
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