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दुर्गापूजा क्यों होती है? 

पूरे भारत में अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से लेकर नवमी तक दुर्गापूजा का उत्सव, जिसे नवरात्र भी कहते हैं, किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। दुर्गा पूजा शरद (आश्विन शुक्ल) एवं बसंत (चैत्र शुक्ल) दोनों में अवश्य किया जाना चाहिए। वैसे भारत में आश्विन का दुर्गोत्सव ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है, विशेषकर बंगाल, बिहार, ओडिशा में।

कितने दिन की दुर्गा पूजा?

दुर्गा पूजा में बहुत स्वतंत्रता है। जरूरी नहीं कि पूरे नौ दिन पूजा की जाए। कोई षष्ठी से नवमी तक, कोई सप्तमी से नवमी तक, कोई महाष्टमी से नवमी तक, तो कोई केवल महाष्टमी पर और कोई केवल महानवमी पर पर व्रत-पूजन करता है।

कौन कर सकता है दुर्गा पूजा?

दुर्गापूजा कोई भी कर सकता है। चारों वर्ण के लोग के अलावा अन्य लोग भी दुर्गा पूजा करने के अधिकारी हैं। यह केवल धार्मिक पूजा नहीं है, इसका सामाजिक महत्व भी बहुत ज्यादा है। यह वास्तव में शक्ति पूजा है। इस पूजा के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपनी शक्ति को पहचानता है, समाज की शक्ति को भी बढ़ाता है। पूजा करने के क्रम में जो सामूहिकता विकसित होती है, उससे लोगों के तन, मन, धन का विकास होता है। अगर दुर्गा पूजा में कोई मेला भी लगता है, तो उससे आर्थिक लाभ लेने वाले भी बहुत होते हैं। जगह-जगह भंडारे भी होते हैं, गरीबों को भोजन कराया जाता है, इससे भी समाज को विकास में मदद मिलती है।

शक्ति सबके लिए जरूरी है। सबको शक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। किसी को भी शक्ति की पूजा से रोकना नहीं चाहिए। यहां किसी भी तरह के भेदभाव से बचना चाहिए।

कितने तरह की पूजा?

भारतीय शास्त्रों में ऐसा उल्लेख हुआ है कि चंडिका पूजा के तीन प्रकार हैं – सात्विक, राजसी एवं तामसी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सात्विक पूजा सबसे श्रेष्ठ है। आधुनिक काल में इसी पूजा का महत्व बढ़ा है।

सात्विक पूजा – इस पूजा में देवी या भगवान के नाम का जाप होता है, नैवेद्य या भोग का अर्पण होता है। पवित्रता व शुद्धता के साथ देवी पूजन होता है।

राजसी पूजा – इस पूजा में बलि एवं नैवेद्य या भोग का प्रयोग होता है। राजसी पूजा करने वाले मांस का प्रयोग करते हैं, यह पूजा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है।

तामसी पूजा – यह पूजा आमतौर पर आदिवासियों में प्रचलित है, जिसमें सुरा और मांस का प्रयोग होता है। यहां जप या पारंपरिक पूजन का अभाव है।

नवरात्र के नौ दिन

पहला दिन

व्रती आश्विन शुक्लपक्ष की प्रथमा को भी व्रत आरम्भ कर सकता है । संकल्प के उपरान्त पाठ होता है। इसके उपरान्त घट की प्रतिष्ठा होती है, जिस में जल, आम्रपल्लव या अन्य वृक्षों की टहनियाँ डाली जाती हैं और दुर्गा की पूजा 16 या 5 उपचारों से की जाती है। इसके उपरान्त चन्दन लेप एवं त्रिफला (केशों को पवित्र करने के लिए) एवं कंघी चढ़ाई जाती है।

दूसरा दिन 

इस दिन केशों को ठीक स्थान पर रखने के लिए देवी को रेशम की पट्टी दी जाती है।

तीसरा दिन 

तृतीया तिथि को देवी को पैरों को रंगने के लिए आलता, सिर के लिए सिन्दूर, देखने के लिए दर्पण दिया जाता है।

चौथा दिन 

चतुर्थी तिथि को देवी को मधुपर्क दिया जाता है, मस्तक पर तिलक के लिए चांदी का एक टुकड़ा तथा आँखों के लिए अंजन दिया जाता है।

पांचवा दिन

पंचमी तिथि देवी को अंगराग एवं अपनी क्षमता या शक्ति के अनुसार आभूषण अर्पित किए जाते हैं।

छठा दिन

इस दिन पूजा का विस्तार हो जाता है। यदि दुर्गापूजा षष्ठी को (ज्येष्ठा नक्षत्र से संयुक्त हो या न हो) हो, तो व्रती को प्रातःकाल बेल के वृक्ष के पास जाना चाहिए और संकल्प करना चाहिए, वेदमन्त्र  कहना चाहिए, घट-स्थापन करना चाहिए और बेल वृक्ष को दुर्गा के समान पूजना चाहिए। यदि पूजा प्रतिपदा को ही आरम्भ कर दी गई हो, तो व्रती को बेल वृक्ष के पास सायंकाल जाना चाहिए और देवी काे मंत्र के साथ पुकारना चाहिए- ‘हे मां, रावण के नाश के लिए एवं राम पर अनुग्रह करने के लिए ब्रह्मा ने तुम्हें अकाल में जगाया था, अतः मैं भी तुम्हें आश्विन की षष्ठी की सन्ध्या में जगा रहा हूँ।’ दुर्गा-बोधन के उपरान्त व्रती को चाहिए कि वह बेल वृक्ष से यह कहे-‘हे बेल वृक्ष, तुमने श्रीशैल पर जन्म लिया है और तुम लक्ष्मी के निवास हो, तुम्हें ले चलना है, चलो, तुम्हारी पूजा दुर्गा के समान करनी है।’ इसके उपरान्त व्रती बेल वृक्ष पर मही (मिट्टी), गंध, शिला, धान्य, दूर्वा, पुष्प, फल, दही, घृत, स्वस्तिक-सिन्दूर आदि को प्रत्येक के साथ मन्त्र का उच्चारण करके रखता है और उसे दुर्गा के शुभ निवास के योग्य बनाता है। इसके उपरान्त वह दुर्गा-पूजा के मण्डप में आता है, आचमन करता है और अपराजिता लता को या नौ पौधों की पत्तियों को एक में गूंथता है। नव पत्रिका हैं कदली, दाड़िमी, धान्य, हरिद्रा, माणक, कचु, बिल्व, अशोक, जयन्ती। प्रत्येक के साथ विशिष्ट मन्त्र का पाठ होता है। इसी दिन दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमा बिल्व की शाखा के साथ घर में लाई जाती है और पूजित होती है।

सातवां दिन

चाहे वह मूल-नक्षत्र नवरात्र की दुर्गापूजा सप्तमी तिथि को, चाहे वह मूल-नक्षत्र से युक्त हो या रहित हो, व्रती स्नान करके बिल्व (बेल) वृक्ष के पास जाता है, पूजा करता है, हाथ जोड़कर कहता है- ‘हे सौभाग्यशाली बिल्व, तुम सदा शंकर के प्यारे हो, तुमसे एक शाखा लेकर मैं दुर्गापूजा करूंगा; हे प्रभु, टहनी काटने से कष्ट का अनुभव न करना; हे बिल्व, तुम पेड़ों के राजा हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ।’ इसके उपरान्त उस शाखा को व्रती पूजा-मण्डप में लाता है और एक पीढ़े पर रख देता है, इसके उपरान्त उस शाखा को व्रती पूजा-मण्डप में पूजा करता है।

आठवां दिन 

कुमारियों एवं ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। देवीपुराण में आया है कि ‘दुर्गा होम, दान एवं जप से उतनी प्रसन्नता नहीं व्यक्त करतीं, जितना कुमारियों को सम्मान देने से।’ कुमारियों को दक्षिणा भी दी जाती है। कुमारिका (दो वर्ष की), त्रिमूर्ति (तीन वर्ष की), कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा, सुभद्रा।

नौंवा दिन 

चाहे उत्तराषाढ़ा नक्षत्र हो या न हो, महाष्टमी के समान ही पूजा की जाती है। पुरानी क्रियाओं का ही पुनरावर्तन होता रहता है, अन्तर केवल यह होता है कि इस दिन अधिक पशुओं की बलि की जाती है।

दसवां दिन 

स्नान, आचमन के उपरान्त 16 उपचारों के साथ पूजा की जाती है। बहुत-से कृत्यों के उपरान्त, यथा मूर्ति से विभिन्न वस्तुओं को हटाकर, किसी नदी या तालाब के पास जाकर संगीत, गान एवं नृत्य के साथ मन्त्रोच्चारण करके प्रतिमा को प्रवाहित कर दिया जाता है। ऐसी प्रार्थना की जाती है- ‘हे दुर्गा, विश्व की माता, आप अपने स्थान को चली जाएं और एक वर्ष के उपरान्त पुनः आएं।’

 


 

शक्ति पूजा का महापर्व नवरात्र

हिन्दुओं में शक्ति का बहुत महत्व है और शक्ति के लिए देवी माँ की पूजा होती है। वर्ष में दो बार नौ नौ दिन की देवी या शक्ति पूजा का विधान है। शक्ति की जरूरत हर किसी को है। हर मनुष्य शक्तिशाली होना चाहता है और यह उचित भी है। शक्ति के लिए जो पूजा की जाती है, उसमें उपवास, त्याग, दान, सेवा, ब्रहचर्य का विशेष महत्व है। हर सनातनी या हिन्दू अपनी क्षमता, अवस्था, सुविधा के हिसाब से पूजन करता है।
ऐसा माना जाता है कि श्रद्धापूर्वक   देवी प्रतिमा दर्शन या शक्ति का ध्यान करने मात्र से भी फल की प्राप्ति होती है।

सबके कल्याण के लिए होती है पूजा 

माँ उदार हैं। वो सबका कल्याण करती हैं। केवल स्वार्थ पूर्ति के लिए ही पूजा नहीं होती। देवी की पूजा पूरे जगत के कल्याण के लिए की जाती है। यहां समय तंत्र साधना का भी होता है, जिसमें सिद्धियों के लिए पूजा की जाती है। लेकिन शक्ति की सच्ची पूजा में जगत का कल्याण छिपा है।

सबके कल्याण के लिए इस मंत्र के जाप का विधान है —

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्येत्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥

भगवान राम ने की थी नवरात्र पूजन की शुरुआत 

ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले भगवान श्री राम ने लंका विजय के ठीक 10 दिन पहले माँ भगवती की पूजा अर्चना की थी। महाबली असुर रावण को पराजित करना आसान नहीं था। रावण को भी अनेक सिद्धियां प्राप्त थीं। ऐसे में राम ने शक्ति पूजा की। दैवीय आशीर्वाद का आह्वान किया।
अंततः बुराई का प्रतीक रावण मारा गया। ऐसा इसलिए भी हुआ कि उसने देवी शक्ति सीता का अपमान किया था। स्त्री शक्ति का अपमान हार का कारण बन गया।  रावण विद्वान भले हो, लेकिन वह नारी का सम्मान करना नहीं जानता था। राम की पत्नी सीता का अपहरण तो पाप की अति साबित हुआ।
राम ने देवी शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने दशमी के दिन उन्होंने रावण का अंत किया। सच्चाई और अच्छाई की जीत हुई। सनातन धर्म में राम की शक्ति पूजा का विशेष महत्व है।
इसलिए शारदीय नवरात्र में नौ दिन रामलीला मंचन-दर्शन की भी परंपरा रही है और दसवें दिन रावण के पुतले के दहन का रिवाज है।
भारत ही नहीं, दुनिया में जहां कहीं भी हिन्दू हैं, वे नवरात्र और दशहरे का आयोजन करते हैं।