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]]>ईश्वर और अल्लाह को आप जानते हैं और ‘हिक आहे’ सिंधी भाषा है, जिसका अर्थ है – एक है। हमारे संसार में दक्षिण एशिया या प्राचीन भारत वर्ष की विशाल भूमि एक विलक्षण भूमि है, जहां ऐसे अनेक अवतार, संत और फकीर हुए, जिन्होंने अपना जीवन यह सिद्ध करने में लगा दिया कि ईश्वर अल्लाह एक है। ऐसे ही अवतारों में एक अवतार हैं झूलेलाल। इन्हें देव या भगवान भी माना गया है। इन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। इनके बचपन का नाम उडेरोलाल है। इन्हें जिंदा पीर भी कहते हैं। इन्हें लाल सांई भी कहते हैं। इन्हें ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर भी कहते हैं। इन्हें लाल शाहबाज कलंदर भी कहा जाता है। अलग-अलग मान्यताएं हैं, लेकिन इस बात पर पूरी सहमति है कि झूलेलाल ने समाज और विश्व की एकता के लिए प्रयास किया। शोषण के विरुद्ध संघर्षरत रहे और अपने चाहने वालों को भरपूर प्यार-आशीर्वाद दिया, जिसके कारण दुनिया में आज भी उन्हें याद किया जाता है, उनकी पूजा-इबादत की जाती है।
40 दिन बाद झूलेलाल का जन्म हुआ और उन्होंने सिंधी समाज को मिरखशाह के अत्याचार से मुक्त कराया। जिस दिन इनका जन्म हुआ था, वह चैत माह था और तिथि द्वितीया थी। इस दिन को सिंधी समाज चैटीचंड के नाम से धूमधाम से मनाता है। इस साल 19 मार्च को पूरी दुनिया में झूलेलाल की जयंती मनाई जा रही है।
झूलेलाल अर्थात एक सूफी पीर – जिनका नाम था लाल शाहबाज कलंदर। इनका जीवनकाल 1177 से 1275 तक माना जाता है। ये महान सूफी फकीर 98 वर्ष तक जीवित रहे थे और इन्होंने पूरा जीवन भाईचारा बढ़ाने में लगा दिया, इन्हें हिन्दू और मुस्लिम समान रूप से मानते थे। पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र के दादू जिले में एक स्थान है सेवन शरीफ – इसे सेवण शरीफ भी कहते हैं। यहां हजरत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह स्थित है। दरगाह में संगीत-नृत्य के साथ धमाल मचाने की परंपरा है।
दुनिया में लगभग चार करोड़ सिंधी हैं, जिसमें से 3 करोड़ के आसपास पाकिस्तान में रहते हैं, भारत में करीब 40 लाख सिंधी हैं। पाकिस्तान में जो सिंधी हैं, वो मुस्लिम हैं। पाकिस्तान में हिन्दू सिंधियों की संख्या 8 प्रतिशत से भी कम है। बहरहाल, भारत में झूलेलाल देवता के रूप में स्वीकार्य हैं, वहीं पाकिस्तान में उन्हें जिंदा पीर के रूप में ज्यादा देखा जाता है। भारत में झूलेलाल के मंदिर बनाए जाते हैं, लेकिन पाकिस्तान में हजरत लाल शाहबाज कलंदर को ही झूलेलाल माना जाता है। पाकिस्तान में सिंधू नदी के किनारे उनकी याद में 40 दिन का मेला लगता है। पाकिस्तान में भी यह चर्चा होती है कि मिरखशाह हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाने में लगा था, तभी हिन्दुओं की प्रार्थना के बाद भगवान झूलेलाल का अवतार हुआ।
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]]>लोहड़ी, पोंगल और मकर संक्राति, तीनों ही कड़ाके की ठंड के बाद मनाए जाने वाले पर्व हैं। आइए सबसे पहले लोहड़ी के बारे में जानें। लोहड़ी पौष के अंतिम दिन मनायी जाती है। ल का अर्थ है लकड़ी, ओह का अर्थ है उपले, ड़ी का अर्थ रेवड़ी। विशेष रूप से पंजाब में मनाए जाने वाले इस पर्व के अवसर पर शाम के समय घर या मुहल्ले में किसी खुली जगह पर लकड़ी और उपले की मदद से आग जलाई जाती है। बच्चे, युवा और अन्य सभी लोग आग को प्रणाम करते हैं, आग की पूजा करते हैं और आग की परिक्रमा करते हैं। आग को तिल चढ़ाते हैं, कई जगह भुन्ना हुआ मक्का और लावा भी चढ़ाया जाता है। मूंगफली, खजूर और अन्य कुछ सामग्रियां भी श्रद्धापूर्वक चढ़ाई जाती हैं। जिन चीजों को हम आग को अर्पित करते हैं, उन्हीं चीजों को हम प्रसाद के रूप में खाते भी हैं और वितरित भी करते हैं।
फिर भी स्वाभाविक रूप से अगर हम देखें, तो यह नए अन्न के आगमन, ठंड के समापन की ओर बढऩे और एक-दूसरे का हाल जानकर खुश मनाने का पर्व है। गौर करने की बात है कि कड़ाके की ठंड जब पंजाब और उत्तर भारत में पड़ती है, तो किसी का कहीं आना-जाना भी प्रभावित हो जाता है। ठंड के कारण आवागमन प्रभावित होने से दूर बसे सम्बंधियों का हाल पता नहीं चलता। विशेष रूप से परिवार जनों को अपनी उन बेटियों की चिंता होती है, जो कहीं दूर ब्याही गई हैं। भाई को तिल, रेवड़ी, गुड़, वस्त्र, धन व अन्य उपहार, सामान देकर बहन का हाल जानने के लिए भेजा जाता है। सब एक दूसरे का हाल जानने के लिए लालायित होते हैं। हर मुहल्ले में मेहमान आ जाते हैं, मौका उत्सव का हो जाता है। तो आग जलाकर साथ बैठना, नाचना, गीत गाना, भोजन करना, हालचाल जानना लोहड़ी की विशेषता है। ठंड के खतरनाक दिन के खत्म होने और अच्छे दिन के आने का भी यह पर्व संकेत है। लोहड़ी का आयोजन मकर संक्राति या पोंगल की पूर्व संध्या पर होता है।
पोंगल तमिल वर्ष का पहला दिन है। नए अन्न के घर आने और उसे पकाने का दिन है। पोंगल का अर्थ है – क्या उबल रहा है या क्या पकाया जा रहा है। दक्षिण भारत में इस दिन शोभा यात्रा भी निकालते हैं। नाना प्रकार से खुशी मनाते हैं। भगवान की पूजा, विशेष रूप से अयप्पा स्वामी की पूजा की जाती है। नया अन्न पकाया जाता है, भगवान को भोग लगाया जाता है और वही लोगों में प्रसाद के रूप में वितरित होता है।
जब सूर्य धनु राशि को छोडक़र मकर राशि में प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति मनाई जाती है। यह कहा जाता है कि इस दिन सूर्य उत्तरायण होते हैं। हालांकि ज्योति:शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दिन नहीं, बल्कि २१ दिसंबर के आसपास ही उत्तरायण हो जाते हैं। उत्तरायण का अर्थ है – सूर्य का दक्षिण की ओर से उत्तर की ओर आना, एक तरह से सूर्य फिर पृथ्वी के पास आने लगते हैं। पृथ्वी के पास सूर्य के आने से धीरे-धीरे गर्मी बढ़ती है और गृष्मकाल आता है। इस दिन स्नान, दान, ध्यान की बड़ी महिमा है।
10 – उनके लिए या उनके नाम पर भी दान की परंपरा रही है।
मकर संक्रांति पर तिल का अत्यधिक प्रयोग होता है। तिल को एक ऐसा अन्न माना गया है, जिसके उपभोग से ठंड कम लगती है। भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि जो इंसान तिल का प्रयोग इन छह प्रकार से करता है, वह कभी असफल नहीं होता, वह कभी अभागा नहीं होता। पहला – शरीर को तिल से नहाना, तिल से उवटना, पितरों को तिल युक्त जल चढ़ाना, आग में तिल अर्पित करना, तिल दान करना और तिल खाना। तिल को बहुत महत्व का माना गया है, उत्तर भारत से ज्यादा तिल उपभोग दक्षिण भारत में होता है।
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]]>वैशाख महीने में मनाई जाने वाली बैसाखी खुशियों का समय है। यह एक लोकपर्व भी है, जब फसल पक जाती है, तब किसान खुशी से झूम उठते हैं और मिलकर उत्सव मनाते हैं। पंजाब और हरियाणा प्रांत में यह खुशी दोगुनी हो जाती है, जब फसल की खुशी के साथ खालसा की स्थापना का उत्सव मनाया जाता है। यह दिन सिक्खों के लिए सामूहिक जन्मदिन है। वे नाच-गाकर, पूजा करके, सबद कीर्तन करके, पकवान बनाकर, लंगर का आयोजन करके इस दिन को बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं।
यह प्रश्न सहज ही सबके मन में आता है कि सिक्खों के नाम के साथ जुड़े रहने वाले सिंह और कौर शब्द का अर्थ क्या है। बैसाखी के दिन ही सिक्ख पुरुषों को ‘सिंह’ की उपाधि मिली थी और उनके नाम के साथ ‘सिंह’ जोडऩा अनिवार्य किया गया था। दूसरी ओर, सिक्ख महिलाओं के नाम के साथ ‘कौर’ शब्द जोडऩा शुरू किया गया था। इस दिन से पहले सिक्खों के नाम अलग, अलग हुआ करते थे। हम कह सकते हैं कि उनके नामों पर धर्म की छाप नहीं पड़ी थी, लेकिन बैसाखी के दिन उनके नाम धर्म के अनुरूप स्पष्ट हो गए। सिंह शब्द का अर्थ स्पष्ट है। सिंह शक्ति, साहस और निडरता का प्रतीक है। दूसरी ओर, ‘कौर’ है शेरनी। ‘कौर’ शब्द का एक अर्थ राजकुमारी या शहजादी भी है। अर्थ यह हुआ कि सिक्ख धर्म में पुरुष सिंह के समान हैं और महिलाएं शेरनी के समान।
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]]>Saturday, 01 सितम्बर 2017
अर्थात हम यह अहंकार न पालें कि हम अच्छे हैं और साथ ही हम यह नहीं मानें कि दुनिया के दूसरे सारे लोग बुरे हैं। प्रेम का यही रास्ता है, प्रेम भीतर देखता है और जगाता है, सुधरता है, तो दुनिया सुधरती है।
दुनिया में जितने भी धर्मग्रंथ रचे गए हैं, उनमें शायद सबसे प्रिय और काव्यात्मक श्रीगुरुग्रंथ साहिब ही हैं। एक ऐसा ग्रंथ जिसकी हर गुरुद्वारे में पूजा-अर्चना होती है। जिसे सिर-माथे में सजाया जाता है, जिसे दिल से गाया जाता है। एक ऐसा ग्रंथ जिसमें न केवल सिख गुरुओं की वाणियां बल्कि अन्य धर्मों के 30 संतों की वाणियां संकलित हैं। हिन्दू भक्त कवि भी हैं, तो मुसलिम सूफी कवि भी। सब गुरु-कवि प्रेम और ज्ञान की काव्यात्मक पंक्तियों के जरिये धर्म की ऐसा अलख जगाते हैं कि धर्मों के तमाम बंधन टूट जाते हैं। भेद मिट जाते हैं। एक ऐसा धर्म बनता है, जिसमें कोई गरीब ऐसा नहीं, जिसे भीख मांगने की जरूरत पड़े। श्रीगुरुग्रंथ साहिब किसी को निराश नहीं होने देता, किसी को भी निर्धन होने नहीं देता। सबको संपन्नता-स्वच्छता और सद्भाव की ओर ले जाता है।
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]]>Saturday, 01 सितम्बर 2017
गुरुनानकदेव से लेकर गुरुगोविंद सिंह जी तक सिखों के दस गुरु हुए। गुरुगोविंद सिंह जी ने गुरु परंपरा को नया रूप देते हुए किसी शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाते हुए गुरुग्रंथ साहिब को ही पूर्ण गुरु घोषित कर दिया। आज सिख गुरुग्रंथ साहिब की पूरे मन से सेवा करते हैं। यह ध्यान रखते हैं कि गुरुग्रंथ साहिब को कोई कष्ट न हो। गुरुग्रंथ साहिब को साक्षी मानकर, आशीर्वाद लेकर ही सिखों के सारे काम होते हैं।
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]]>Saturday, 01 सितम्बर 2017
श्रीगुरुग्रंथ साहिब दुनिया का सबसे सहब धर्मग्रंथ है। सिखों के पंचम गुरु श्रीअर्जुनदेव जी ने गुरुनानकदेव सहित सभी गुरुओं की वाणी को संकलित करके पहली बार 1604 में गुरुग्रंथ साहिब को प्र्रस्तुत किया। उसके ठीक 101 साल बाद 1705 में गुरु गोविंद सिंह जी ने इसमें गुरु तेगबहादुर जी के 116 सबद जोड़े और इस ग्रन्थ को पूर्ण रूप दिया। इस ग्रंथ में 1430 पृष्ठ है।
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