भक्त शिरोमणि मीराबाई जी

भारत में कृष्ण भक्ति का संसार बहुत समृद्ध है। यहां जब भी कृष्ण भक्ति की चर्चा शुरू होती है, तो अगली पंक्ति के भक्त-संतों में राजकुमारी मीराबाई का नाम आता है। कृष्ण भक्ति की कथा बिना मीरा बाई के पूरी नहीं होती है। वह आज भी सबके लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। उन्होंने आधुनिक युग में लोगों को अपने जीवन से सिखाया कि भगवान से कैसे मन लगाना चाहिए।

बहुत कम आयु में ही उन्हें कृष्ण भक्ति का बोध हो गया था। एक कथा है, एक दिन राजमहल के पास से एक बारात निकल रही थी, नन्हीं मीरा ने अपनी दादी से पूछा था कि किसकी बारात निकल रही है, तो जवाब मिला था, एक दूल्हे की बारात निकल रही है। तब मीरा ने प्रश्न किया कि क्या सबकी बारात निकलती है, क्या मेरी बारात भी निकलेगी?  दादी ने जवाब दिया, हां तुम्हारी बारात भी आएगी। बच्ची ने फिर प्रश्न किया कि कौन बारात लेकर आएगा, तो दादी ने कहा, तुम्हारा दूल्हा बारात लेकर आएगा। फिर क्या था, मीरा पीछे पड़ गईं कि मेरा दूल्हा कौन है? दादी ने टालने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब मीरा अपने प्रश्न पर अड़ गईं, तब दादी ने उत्तर दिया, तुम्हारा दूल्हा कान्हा हैं।

यह बात नन्हीं मीरा के ह्रदय में बैठ गई कि मेरा दूल्हा कृष्ण हैं। बाद में उम्र बढ़ने पर लोक-समाज के दबाव में मीरा का विवाह एक राजघराने में राजा या राणा के छोटे भाई से हो गया, पर मीरा कृष्ण को ऐसे समर्पित हो गई थीं कि उन्हें कोई दूसरा नाम सूझता ही नहीं था। उनके पति ने भी उनके साथ कुछ गलत नहीं किया। उनका ज्यादा समय कान्हा की सेवा में ही लगता था। महल में रहते हुए भी वह किसी संत की तरह रहती थीं। साधु-संतों के साथ सत्संग करते हुए उन्होंने अपने भक्तिभाव को पूर्ण रूप से जगा लिया था। भक्ति में लीन मीरा के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वह भजन-कीर्तन करते हुए अपने महल से निकल गईं। उन्हें लोकलाज का भय दिखाकर बार-बार मना कर लाया गया। बहुत प्रयास हुए, पर वह भक्ति के मार्ग से विचलित नहीं हुईं।

मेरो तो गिरधर गोपाल , दूसरो न कोई।

जा के सर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।

और

तुम बिन मेरी कौन खबर ले गोबरधन गिरधारी…

इसे ऐसे भी गाया जाता है – थे बिण म्हारे कोण खबर ले गोबरधण गिरधारी।

बताते हैं कि वह अपने पदों को कहीं लिखती नहीं थीं, केवल गाती रहती थीं। दूसरे लोग सुनकर उसे याद करते थे और मीरा के पद गाने की परंपरा बन गई। साधुओं और संतों ने मीरा को बचाए रखा। उनका बहुत समय वृंदावन और द्वारका में बीता था। वह पैदल की गाते हुए चलती थीं और जब प्रसिद्ध हो गई थीं, तब लोग उनके पीछे-पीछे चल पड़ते थे। उन्होंने शिष्य नहीं बनाए, क्योंकि वह अपनी भक्ति को निरंतर पकाने में ही जुटी हुई थीं।

 

कृष्ण के सिवा और कोई पुरुष नहीं

मीरा बाई का भक्ति समर्पित जीवन बहुत कठिन बीता। पति के निधन के बाद उन्हें सती होने के लिए कहा गया, पर उन्होंने मना कर दिया। वह वृंदावन के लिए निकल गईं। वृंदावन में तब सबसे बड़े कृष्ण भक्त जीव गोस्वामी जी थे। मीरा बाई ने गोस्वामी जी से मिलने की कोशिश की, तो उत्तर मिला कि जीव गोस्वामी जी किसी स्त्री से नहीं मिलते हैं।

तब मीरा बाई ने प्रश्न किया, क्या वृंदावन में भगवान कृष्ण के अलावा भी कोई पुरुष है?

जीव गोस्वामी को अपनी भूल का एहसास हुआ और वह समझ गए कि मीरा बाई किस स्तर की संत हैं। भक्तशिरोमणि मीरा बाई को उन्होंने सादर मिलने के लिए बुलाया।

भक्ति क्षेत्र में यह माना जाता है कि केवल ईश्वर ही पुरुष हैं, केवल कृष्ण की पुरुष हैं, बाकी सब स्त्रियां हैं, इसी भाव से भक्ति संभव होती है। मीरा बाई को विष का प्याला भी दिया गया था, पर उन्होंने कृष्ण नाम के साथ पी लिया और उन्हें कुछ न हुआ। बाद में उनके राजघराने का दबाव उन पर बहुत बढ़ गया कि किसी तरह से मीरा बाई को मेड़ता ले आओ, ताकि वह एक जगह रहें, जगह-जगह उनके भटकने से खानदान की बदनामी होती है। जब राणा के सेवक ज्यादा अड़ गए, तब मीरा बाई ने अपने प्राण त्याग दिए। बताते हैं कि वह अपने आराध्य कृष्ण में ही समाहित हो गईं।

नाभादास के भक्तमाल में मीरा पर यह छप्पय प्रसिद्ध है –

लोक लज्जा कुल शृंखला तजि मीरा गिरिधर भजी।

सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुग हि दिखायो।।

निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो।

दुष्टन दोष विचारि मृत्यु को उद्यम कीयो।

बार न बांको भयो गरल अमृत ज्यों पीयो।

भक्ति-नीशान बजाय के काइ ते नाहिन लजी।

लोक लज्जा कुल शृंखला तजि  मीरा गिरिधर भजी।

 

मीरा से सबक

भक्ति के मार्ग में भय और लोकलाज की चिंता नहीं करनी चाहिए। जो भयभीत हो जाता है, उससे भक्ति संभव नहीं। जो बात-बात पर लोकलाज का चिंता करता है, जो संकोच करता है, जो जीवन के अन्य पदार्थों में अपना मन लगाता है, उसके लिए भक्ति कठिन है। भक्ति का श्रेष्ठ रूप है कि स्वयं को भजन में लीन रखा जाए। अपनी पूरी ऊर्जा को एक दिशा में लगा दिया जाए, तभी भक्ति का रस जागता है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि भक्त के जीवन में एक समय आता है, जब भगवान और भक्त के बीच का अंतर मिट जाता है। भक्त को भी लोग भगवान मानकर पूजने लगते हैं और यह गलत भी नहीं है। आज मेड़ता, राजस्थान में ही नहीं, देश में अनेक जगहों पर मीरा मंदिर स्थित हैं, जहां भगवान कृष्ण के साथ ही भक्तशिरोमणि मीराबाई की भी पूजा होती है।

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