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]]>1 – महर्षि वेदव्यास – ईसा पूर्व 5000 वर्ष से भी पहले वेदव्यास हुए थे और ज्यादातर विद्वान इस बात से सहमत हैं कि इतिहास में अनेक वेदव्यास हुए हैं। इनका प्रमुख कार्य चार वेदों का संपादन रहा है। वेदों के आधार पर ही सनातन धर्म चल रहा है।
2 – महर्षि वाल्मीकि – ईसा पूर्व 5000 वर्ष से भी पहले हुए महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू थे, राम की भक्ति ने उन्हें संत और फिर महर्षि बना दिया। वे दुनिया के प्रथम या आदि कवि हैं – उन्होंने रामायण की रचना करके सनातन संस्कृति को सशक्त बनाया था।
3 – ऋषि वशिष्ठ – ईसा पूर्व 5000 वर्ष से भी पहले वशिष्ठ जी हुए थे। अत्यंत विद्वान और तपस्वी ऋषि थे। वे दशरथ पुत्र मर्यादापुरुषोत्तम राम जी के गुरु थे, उन्होंने ही रामराज्य का मार्ग प्रशस्त किया। उनका ज्ञान आज भी दुनिया को राह दिखा रहा है।
4 – ऋषि गौतम – ईसा पूर्व 2500 में ऋषि गौतम हुए और सनातन धर्म के मूलभूत ढांचे को सशक्त करने में अतुलनीय योगदान दिया। उन्होंने संसार में पहली बार न्याय शास्त्र की रचना की थी, जिससे आगे चलकर अध्ययन, शासन-प्रशासन में सुविधा हुई।
5 – ऋषि मनु – ईसा पूर्व 2000 में हुए ऋषि मनु संसार के पहले संविधान लेखक या नीति निर्माता हैं। उन्होंने मानव व्यवहार कैसे हो, समाज का पालन-पोषण कैसे हो, व्यक्ति का उद्धार कैसे हो, व्यवस्था कैसे चले, इसके लिए मनु स्मृति की रचना की।
6 – चरक और सुश्रुत – ईसा पूर्व 1000 से 600 के बीच हुए चरक ने आयुर्वेद और औषधि विज्ञान को समृद्ध किया। सुश्रुत को दुनिया का पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है। हर संभव असाध्य बीमारियों का इलाज भी दोनों वैद्यों ने संसार को बताया था।
7 – वर्धमान महावीर – ईसा पूर्व 600 से 528 के बीच संसार में रहे वैशाली में जन्मे राजपुत्र वर्धमान महावीर ने भारतीय नास्तिक दर्शन के तहत ही जैन दर्शन की आधारशिला को मजबूत किया। उन्होंने दुनिया को तप और अहिंसा का शांतिपूर्ण मार्ग दिखलाया।
8 – गौतम बुद्ध – ईसा पूर्व 563 से 483 लुंबिनी में जन्मे राजपुत्र सिद्धार्थ ही आगे चलकर बुद्ध कहलाए। जाति भेदभाव, कर्मकांड, मूर्तिपूजा से परे जाकर सबसे सद्व्यवहार करते हुए, मानवतापूर्ण व्यवहार करते हुए मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य पा सकता है।
9 – ऋषि पाणिनी – ईसा पूर्व 300 में हुए ऋषि पाणिनी को व्याकरण के लिए हमेशा याद किया जाएगा। किसी भी भाषा के लिए दुनिया का संभवत: पहला व्याकरण पाणिनी ने ही लिखा था। भाषा मजबूत हुई, तो शिक्षा व सभ्यता को मजबूती मिली।
10 – कौटिल्य – ईसा पूर्व 200 ईसा पूर्व हुए कौटिल्य या चाणक्य ने पहली बार अर्थशास्त्र की रचना की, जिसके तहत ही पूरी राजनीति और दंडशास्त्र को उन्होंने समेट लिया। उन्होंने व्यवस्थित तरीके से बताया कि आधुनिक राज्य कैसे चलाया जाता है।
11 – ऋषि पतंजलि – ईसा पूर्व 100 में ऋषि पतंजलि ने योग शास्त्र की रचना की और बताया कि योग मनुष्य के लिए क्यों जरूरी है। योग के जरिये शरीर पर नियंत्रण कर न केवल व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है, बल्कि परमेश्वर को भी पा सकता है।
12 – भरत मुनि – ईसा उपरांत 200 में भरत मुनि ने संसार में पहली बार नाट्यशास्त्र की रचना की। उन्होंने भाव का अर्थ और प्रदर्शन स्पष्ट करके कला संसार को सशक्त किया। किया। अभिनय, नृत्य की दुनिया को उन्होंने बदलकर रख दिया।
13 – आर्यभट्ट – ईसा उपरांत 463-550 में हुए महान गणितज्ञ एक कुशल ज्योतिषी व खगोलशास्त्री भी थे। गणित में अनगिनत आविष्कार किए। बताया कि पृथ्वी घूम रही है, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण कैसे होता है। शून्य का मार्ग प्रशस्त किया।
14 – आदि शंकराचार्य – ईसा उपरांत 788 से 820 के बीच संसार में रहे आदि शंकराचार्य सनातन धर्म को सुस्कारी और शास्त्र सम्मत दिशा में मोडक़र पुनर्जीवन दिया। चारों दिशाओं में धाम या तीरथ बनाकर भारत का एक धार्मिक ढांचा खड़ा किया।
15 – श्री रामानुजाचार्य – ईसा उपरांत 1017 से 1137 के बीच हुए महान रामानुजाचार्य ने ज्ञान और भक्ति मार्ग को सशक्त किया। उन्होंने विद्या के क्षेत्र में धर्म की शास्त्रीय महिमा को स्थापित किया, उनसे अनेक आचार्य प्रभावित होकर आगे बढ़े।
16 – श्री रामानंदाचार्य – 1400 से 1476 के बीच हुए रामानंदाचार्य ने सद्भाव को सशक्त बनाया। जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै से हरि का होई। सगुण-निर्गुण, दोनों ही धाराओं को आगे बढ़ाया, तो कबीर भी हुए और तुलसीदास भी।
17 – गुरु नानक – 1469 से 1539 के बीच हुए गुरु नानकदेव धार्मिक सद्भाव की राह को मजबूत किया। धर्म से जो घृणा फैल रही थी, देश जिस तरह से भटक रहा था, उसमें नानकदेव ने प्रेम और मेलमिलाप की राह पर चलने का आह्वान किया।
18 – गुरु गोविंद सिंह – 1666 से 1708 के बीच हुए गुरु गोविंद सिंह को भारत में भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने धर्म के तहत संत और सैनिक, दोनों ही रूपों को सशक्त बनाया। अपने धर्म की रक्षा करना सिखाया और सेवा को महानता प्रदान की।
19 – दयानंद सरस्वती – 1824 से 1883 के बीच हुए संत-समाज सुधारक दयानंद सरस्वती को हिन्दू धर्म को अंधविश्वास की जकड़ से निकालने के लिए हमेशा याद किया जाएगा। देश सेवा के लिए पाखंड के विरुद्ध उन्होंने अपना आर्य समाज गठित किया।
20 – स्वामी विवेकानंद – 1863 से 1902 के बीच हुए स्वामी विवेकानंद को सनातन संस्कृति के आधुनिक जयघोष के लिए याद किया जाएगा। उन्होंने धर्म पर खो रहे विश्वास को पुन: स्थापित करके दुनिया में हिन्दू जनमानस को झकझोर कर जगाया।
21 – स्वामी प्रभुपाद – 1896 से 1977 के बीच संसार में रहे भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद को संसार का सबसे विशाल सनातन भक्ति आंदोलन – हरेकृष्णा मूवमेंट के लिए हमेशा याद किया जाएगा। गूढ़ अध्यात्म को संगीत से जोडक़र भावविभोर कर दिया।
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]]>7 मई 1861 को जन्मे महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगौर मानवता और ईश्वर पर परम विश्वास के कवि थे। उनके जैसा कोमल, अहिंसक, मानवतावादी और परलोक प्रेमी कवि दूसरा नहीं हुआ है। एक कवि जो सफल गद्यकार था, कहानियां, नाटक, निबंध लिखता था। एक कवि जो संगीत की रचना करता था। एक कवि जो शिक्षाविद् था, एक विश्वविद्यालय विश्वभारती की स्थापना की। एक ऐसा कवि जो अपने आखिरी दिनों में चित्रकारी करने लगा। ईश्वर से परम प्रेम की आकांक्षा, लेकिन ईश्वर के बनाए संसार से भी उतना ही प्रेम। ईश्वर के बनाए संसार की चुनौतियों से प्रेम। ईश्वर के बनाए संसार में संघर्ष से प्रेम। और उस परलोक से प्रेम, जहां एक दिन सबको जाना ही है।
टैगोर ने कहा था, ‘दुनिया का प्रत्येक बच्चा अपने जन्म के साथ यह संदेश लेकर आता है कि भगवान अभी भी मनुष्य से निराश नहीं हुआ है।’ उन्होंने कहा, ‘आपकी मूर्ति का टूटकर धूल में मिल जाना, इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर की धूल आपकी मूर्ति से महान है।’ उन्होंने कहा, ‘आस्था वो पक्षी है, जो भोर के अंधेरे में भी उजाले को महसूस करता है।’ उन्होंने कहा, ‘जो आत्मा शरीर में रहती है, वही ईश्वर है। लोग उस अंतर्देव को भूल जाते हैं और दौड़-दौडक़र तीर्थ जाते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘प्रेम ही एकमात्र वास्तविकता है।’ उन्होंने कहा, ‘मैंने स्वप्न देखा कि जीवन आनंद है। मैं जागा और पाया कि जीवन सेवा है। मैंने सेवा की और पाया कि सेवा में ही आनंद है।’ ‘हम दुनिया में तब जीते हैं, जब उससे प्रेम करते हैं।’
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]]>The post चैटीचंड महोत्सव / ChaitiChand Mahotsav appeared first on agaadhworld.
]]>ईश्वर और अल्लाह को आप जानते हैं और ‘हिक आहे’ सिंधी भाषा है, जिसका अर्थ है – एक है। हमारे संसार में दक्षिण एशिया या प्राचीन भारत वर्ष की विशाल भूमि एक विलक्षण भूमि है, जहां ऐसे अनेक अवतार, संत और फकीर हुए, जिन्होंने अपना जीवन यह सिद्ध करने में लगा दिया कि ईश्वर अल्लाह एक है। ऐसे ही अवतारों में एक अवतार हैं झूलेलाल। इन्हें देव या भगवान भी माना गया है। इन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। इनके बचपन का नाम उडेरोलाल है। इन्हें जिंदा पीर भी कहते हैं। इन्हें लाल सांई भी कहते हैं। इन्हें ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर भी कहते हैं। इन्हें लाल शाहबाज कलंदर भी कहा जाता है। अलग-अलग मान्यताएं हैं, लेकिन इस बात पर पूरी सहमति है कि झूलेलाल ने समाज और विश्व की एकता के लिए प्रयास किया। शोषण के विरुद्ध संघर्षरत रहे और अपने चाहने वालों को भरपूर प्यार-आशीर्वाद दिया, जिसके कारण दुनिया में आज भी उन्हें याद किया जाता है, उनकी पूजा-इबादत की जाती है।
40 दिन बाद झूलेलाल का जन्म हुआ और उन्होंने सिंधी समाज को मिरखशाह के अत्याचार से मुक्त कराया। जिस दिन इनका जन्म हुआ था, वह चैत माह था और तिथि द्वितीया थी। इस दिन को सिंधी समाज चैटीचंड के नाम से धूमधाम से मनाता है। इस साल 19 मार्च को पूरी दुनिया में झूलेलाल की जयंती मनाई जा रही है।
झूलेलाल अर्थात एक सूफी पीर – जिनका नाम था लाल शाहबाज कलंदर। इनका जीवनकाल 1177 से 1275 तक माना जाता है। ये महान सूफी फकीर 98 वर्ष तक जीवित रहे थे और इन्होंने पूरा जीवन भाईचारा बढ़ाने में लगा दिया, इन्हें हिन्दू और मुस्लिम समान रूप से मानते थे। पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र के दादू जिले में एक स्थान है सेवन शरीफ – इसे सेवण शरीफ भी कहते हैं। यहां हजरत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह स्थित है। दरगाह में संगीत-नृत्य के साथ धमाल मचाने की परंपरा है।
दुनिया में लगभग चार करोड़ सिंधी हैं, जिसमें से 3 करोड़ के आसपास पाकिस्तान में रहते हैं, भारत में करीब 40 लाख सिंधी हैं। पाकिस्तान में जो सिंधी हैं, वो मुस्लिम हैं। पाकिस्तान में हिन्दू सिंधियों की संख्या 8 प्रतिशत से भी कम है। बहरहाल, भारत में झूलेलाल देवता के रूप में स्वीकार्य हैं, वहीं पाकिस्तान में उन्हें जिंदा पीर के रूप में ज्यादा देखा जाता है। भारत में झूलेलाल के मंदिर बनाए जाते हैं, लेकिन पाकिस्तान में हजरत लाल शाहबाज कलंदर को ही झूलेलाल माना जाता है। पाकिस्तान में सिंधू नदी के किनारे उनकी याद में 40 दिन का मेला लगता है। पाकिस्तान में भी यह चर्चा होती है कि मिरखशाह हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाने में लगा था, तभी हिन्दुओं की प्रार्थना के बाद भगवान झूलेलाल का अवतार हुआ।
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]]>The post Dayanand Jayanti / दयानंद जयंती appeared first on agaadhworld.
]]>दयानंद सरस्वती को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। यह कहा जाता है कि उन्होंने भारतीयों के मन को जगाया और तार्किक स्वाधीन सोचने के लिए प्रेरित व विवश किया। उन्होंने पूरा जीवन समाज को अंधविश्वास से उबारने में लगा दिया। समाज सुधार की दिशा में नाना पकार के प्रयोग किए। विश्व के तमाम महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथों का उन्होंने अध्ययन किया था। उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म ग्रंथों की विवेचना की, बल्कि उन्होंने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख इत्यादि धर्मों पर भी खूब गहराई से विचार किया था। ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार, 12 फरवरी 1824 को टंकारा, गुजरात में उनका जन्म हुआ था और 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में उनका निधन हुआ। उनका सबसे बड़ा काम यह है कि उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, एक ऐसा समाज जो आज भी संपूर्ण समाजों की सेवा कर रहा है।
दयानंद सरस्वती ने मूर्ति पूजा का खूब विरोध किया। वे जहां भी गए, उन्होंने बड़े-बड़े पंडितों को यह चुनौती दी कि वे सिद्ध करें कि वेदों में मूर्ति पूजा करने के बारे में कहां लिखा गया है। वे अपनी बात वेद और तर्क के आधार पर ही रखते थे। संस्कृत भाषा पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी थी और झूठ-कुतर्क-अंधविश्वास को वह तत्काल धूल चटा देते थे। इस कारण बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए थे। उनका प्रभाव इतनी जल्दी होता था कि भारत में हजारों लोगों ने अपने घर में रखी प्रतिमाओं को निकाल बाहर किया। बड़ी संख्या में मूर्तियों को नदियों में बहा दिया।
ऐसा नहीं है कि दयानंद सरस्वती केवल हिन्दुओं की कमियों पर प्रहार करते थे। उन्होंने जब भी मौका मिला, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख इत्यादि धर्म से जुड़ी कमियों को भी सबके सामने रखा। वह बाइबिल के सहारे ही ईसाइयों की कमियों को दर्शा देते थे। वे कुरआन की भी कमियों पर उंगली रख देते थे। इस मामले में उनकी रचना ‘सत्यार्थप्रकाश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने तर्क देकर अंधविश्वासों पर प्रहार किया है। वे सच बोलने में पीछे नहीं रहते थे और तर्क के लिए हमेशा तैयार रहते थे। जिस वैज्ञानिक व तार्किक विधि से उन्होंने हिन्दू धर्म को देखा, ठीक उसी तरह से उन्होंने दूसरे धर्मों को भी देखा।
देश में राजा लोग कई शादियां करते थे और रखैलें भी रखते थे। जोधपुर के तत्कालीन राजा जसवंत सिंह जी की भी एक प्रिय रखैल थी – नन्हीं जान। राजा का काफी समय नन्हीं जान के साथ गुजरता था। एक दिन दयानंद जी ने राजा को नन्हीं जान की पालकी को कंधा लगाते देख लिया, फिर क्या था – उन्होंने राजा को प्रवचन दिया कि राजाओं के ऐसे ही कृत्यों और अय्याशियों की वजह से देश की दुर्दशा हुई है। वे खूब नाराज हुए, यहां तक कह दिया कि – सिंह अब कुत्तों का अनुकरण करने लगे हैं। राजा में तत्काल सुधार आया, लेकिन नन्हीं जान दयानंद जी की दुश्मन बन गई। जोधपुर में गहरा षडयंत्र हुआ, जिसमें दयानंद से नाराज चल रहे अंग्रेजों का भी हाथ बताया जाता है। उन्हें 29 सितंबर 1883 को पीने के लिए दूध दिया गया, जिसमें कांच के बहुत बारिक टुकड़े मिलाए गए थे। दयानंद जी की सेहत बिगड़ गई। उन्होंने दोषियों को कुछ न कहा, बल्कि दूध में कांच मिलाने वाले रसोइए को जोधपुर से जान बचाकर भागने में भी मदद की। इलाज कठिन था, लेकिन उसमें कोताही हुई। 16 अक्टूबर को उनके शिष्य उन्हें लेकर जोधपुर से निकले और माउंट आबू, उदयपुर पहुंचे। वहां से इलाज के लिए 27 अक्टूबर को अजमेर लाया गया। जहां दीपावली के दिन 30 अक्टूबर की शाम दयानंद जी ने भिनाय कोठी पर अपना शरीर त्याग दिया। उनकी इच्छा के अनुसार, उनका अवशेष जहां बिखेरा गया, वहां आज ऋषि उद्यान है, अन्नासागर-अजमेर के किनारे।
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]]>लोहड़ी, पोंगल और मकर संक्राति, तीनों ही कड़ाके की ठंड के बाद मनाए जाने वाले पर्व हैं। आइए सबसे पहले लोहड़ी के बारे में जानें। लोहड़ी पौष के अंतिम दिन मनायी जाती है। ल का अर्थ है लकड़ी, ओह का अर्थ है उपले, ड़ी का अर्थ रेवड़ी। विशेष रूप से पंजाब में मनाए जाने वाले इस पर्व के अवसर पर शाम के समय घर या मुहल्ले में किसी खुली जगह पर लकड़ी और उपले की मदद से आग जलाई जाती है। बच्चे, युवा और अन्य सभी लोग आग को प्रणाम करते हैं, आग की पूजा करते हैं और आग की परिक्रमा करते हैं। आग को तिल चढ़ाते हैं, कई जगह भुन्ना हुआ मक्का और लावा भी चढ़ाया जाता है। मूंगफली, खजूर और अन्य कुछ सामग्रियां भी श्रद्धापूर्वक चढ़ाई जाती हैं। जिन चीजों को हम आग को अर्पित करते हैं, उन्हीं चीजों को हम प्रसाद के रूप में खाते भी हैं और वितरित भी करते हैं।
फिर भी स्वाभाविक रूप से अगर हम देखें, तो यह नए अन्न के आगमन, ठंड के समापन की ओर बढऩे और एक-दूसरे का हाल जानकर खुश मनाने का पर्व है। गौर करने की बात है कि कड़ाके की ठंड जब पंजाब और उत्तर भारत में पड़ती है, तो किसी का कहीं आना-जाना भी प्रभावित हो जाता है। ठंड के कारण आवागमन प्रभावित होने से दूर बसे सम्बंधियों का हाल पता नहीं चलता। विशेष रूप से परिवार जनों को अपनी उन बेटियों की चिंता होती है, जो कहीं दूर ब्याही गई हैं। भाई को तिल, रेवड़ी, गुड़, वस्त्र, धन व अन्य उपहार, सामान देकर बहन का हाल जानने के लिए भेजा जाता है। सब एक दूसरे का हाल जानने के लिए लालायित होते हैं। हर मुहल्ले में मेहमान आ जाते हैं, मौका उत्सव का हो जाता है। तो आग जलाकर साथ बैठना, नाचना, गीत गाना, भोजन करना, हालचाल जानना लोहड़ी की विशेषता है। ठंड के खतरनाक दिन के खत्म होने और अच्छे दिन के आने का भी यह पर्व संकेत है। लोहड़ी का आयोजन मकर संक्राति या पोंगल की पूर्व संध्या पर होता है।
पोंगल तमिल वर्ष का पहला दिन है। नए अन्न के घर आने और उसे पकाने का दिन है। पोंगल का अर्थ है – क्या उबल रहा है या क्या पकाया जा रहा है। दक्षिण भारत में इस दिन शोभा यात्रा भी निकालते हैं। नाना प्रकार से खुशी मनाते हैं। भगवान की पूजा, विशेष रूप से अयप्पा स्वामी की पूजा की जाती है। नया अन्न पकाया जाता है, भगवान को भोग लगाया जाता है और वही लोगों में प्रसाद के रूप में वितरित होता है।
जब सूर्य धनु राशि को छोडक़र मकर राशि में प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति मनाई जाती है। यह कहा जाता है कि इस दिन सूर्य उत्तरायण होते हैं। हालांकि ज्योति:शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दिन नहीं, बल्कि २१ दिसंबर के आसपास ही उत्तरायण हो जाते हैं। उत्तरायण का अर्थ है – सूर्य का दक्षिण की ओर से उत्तर की ओर आना, एक तरह से सूर्य फिर पृथ्वी के पास आने लगते हैं। पृथ्वी के पास सूर्य के आने से धीरे-धीरे गर्मी बढ़ती है और गृष्मकाल आता है। इस दिन स्नान, दान, ध्यान की बड़ी महिमा है।
10 – उनके लिए या उनके नाम पर भी दान की परंपरा रही है।
मकर संक्रांति पर तिल का अत्यधिक प्रयोग होता है। तिल को एक ऐसा अन्न माना गया है, जिसके उपभोग से ठंड कम लगती है। भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि जो इंसान तिल का प्रयोग इन छह प्रकार से करता है, वह कभी असफल नहीं होता, वह कभी अभागा नहीं होता। पहला – शरीर को तिल से नहाना, तिल से उवटना, पितरों को तिल युक्त जल चढ़ाना, आग में तिल अर्पित करना, तिल दान करना और तिल खाना। तिल को बहुत महत्व का माना गया है, उत्तर भारत से ज्यादा तिल उपभोग दक्षिण भारत में होता है।
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