योग दिवस
सच्चा सुख पाने का मार्ग है योग
( जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से)
जीवन को पूर्णता देने के लिए जीवन को प्रकाशित करने के लिए जीवन को बाहर-भीतर से उज्ज्वल बनाने के लिए योग आवश्यक है। योग संसार के सभी लोगों के लिए ऑक्सीजन के समान, प्राण वायु के समान नितांत आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि केवल भारत के ही लोगों के लिए योग का ज्ञान आवश्यक है या सनातन धर्म के लोगों के लिए ही आवश्यक है, अपितु यह ऐसा जीवनोपयोगी संसाधन है या ऐसी व्यवस्था है, ऐसी चिंतन प्रक्रिया है, जो ईश्वर के वरदान स्वरूप ऐसा आशीर्वाद है, ऐसा अवदान है कि जिसकी संसार में सभी लोगों को आवश्यकता है। योग से सभी को जुडऩा चाहिए और अपने जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए।
योग दर्शन को महर्षि पतंजलि ने संसार के सामने लिखकर उद्घाटित किया था। महर्षि पतंजलि ने योग व्याख्यान की जब प्रतिज्ञा की कि मैं योग का व्याख्यान करूंगा। योग का एक अर्थ होता है जोड़ना। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति, अपने संसाधनों को जोड़ने से ही हमें जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति होती है। हम श्रेष्ठ फल से जुड़ें, श्रेष्ठ लोगों से जुड़ें, श्रेष्ठ समाज से जुड़ें, श्रेष्ठ कर्म और ज्ञान से जुड़ें, श्रेष्ठ साधनों से जुड़ें। यहां योग दर्शन में योग का अर्थ समाधि है। महर्षि पतंजलि ने व्याख्यान किया कि संसार में जितनी भी कठिनाइयां हैं, जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका मूल चंचलता ही है। जितना संसार दिख रहा है, वहां बड़ी चंचलता है। चित्त जब जड़ पदार्थों से जुड़ता है, तो भटकता है। कष्टों का एक ही कारण है – हमारा चित्त चंचल है। जैसे पशु-पक्षी भटकते रहते हैं कहीं भी उन्हें संतोष नहीं होता, कहीं भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। ठीक उसी तरह से हम भी भटकते हैं, तरह-तरह की चीजों से अपने चित्त को जोड़ते हैं, उसी अनुरूप चित्त का आकार बढ़ाते-बनाते हैं। चित्त भटकता ही रहता है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने कहा कि चित्त के भटकाव का निरोध होना चाहिए। योग का यही अर्थ है। चित्त वृत्तियों का थमना जरूरी है। चित्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाएंगी, तो हमारे जीवन की कठिनाइयां नष्ट हो जाएंगी और हमें पूर्ण जीवन प्राप्त होगा। यह सबके लिए जरूरी है, यह केवल हिन्दू के लिए नहीं है। संपूर्ण काल के लिए संपूर्ण संप्रदाय के लोगों के लिए है, यह सबके लिए परमोपयोगी है।
योग दर्शन को महर्षि पतंजलि ने संसार के सामने लिखकर उद्घाटित किया था। महर्षि पतंजलि ने योग व्याख्यान की जब प्रतिज्ञा की कि मैं योग का व्याख्यान करूंगा। योग का एक अर्थ होता है जोड़ना। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति, अपने संसाधनों को जोड़ने से ही हमें जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति होती है। हम श्रेष्ठ फल से जुड़ें, श्रेष्ठ लोगों से जुड़ें, श्रेष्ठ समाज से जुड़ें, श्रेष्ठ कर्म और ज्ञान से जुड़ें, श्रेष्ठ साधनों से जुड़ें। यहां योग दर्शन में योग का अर्थ समाधि है। महर्षि पतंजलि ने व्याख्यान किया कि संसार में जितनी भी कठिनाइयां हैं, जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका मूल चंचलता ही है। जितना संसार दिख रहा है, वहां बड़ी चंचलता है। चित्त जब जड़ पदार्थों से जुड़ता है, तो भटकता है। कष्टों का एक ही कारण है – हमारा चित्त चंचल है। जैसे पशु-पक्षी भटकते रहते हैं कहीं भी उन्हें संतोष नहीं होता, कहीं भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। ठीक उसी तरह से हम भी भटकते हैं, तरह-तरह की चीजों से अपने चित्त को जोड़ते हैं, उसी अनुरूप चित्त का आकार बढ़ाते-बनाते हैं। चित्त भटकता ही रहता है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने कहा कि चित्त के भटकाव का निरोध होना चाहिए। योग का यही अर्थ है। चित्त वृत्तियों का थमना जरूरी है। चित्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाएंगी, तो हमारे जीवन की कठिनाइयां नष्ट हो जाएंगी और हमें पूर्ण जीवन प्राप्त होगा। यह सबके लिए जरूरी है, यह केवल हिन्दू के लिए नहीं है। संपूर्ण काल के लिए संपूर्ण संप्रदाय के लोगों के लिए है, यह सबके लिए परमोपयोगी है।
यह आवश्यक है कि हम अपने चित्त को अनुशासित करें, इन्द्रियों को अनुशासित करें, लेकिन प्रश्न है कि हम कैसे अपने चित्त को अनुशासित करेंगेे।
महर्षि पतंजलि ने सबसे अच्छा समाधान बताया। उन्होंने लिखा –
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधा रणाध्यान समाधयोष्टावंगानी।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधा
अर्थात हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के माध्यम से अपनी चित्त वृत्तियों को रोकने का प्रयास करें। वास्तव में ये आठ अंग हैं योग के, इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। यहां योग का अर्थ समाधि है। अभी अधिकतर लोग योग की शुरुआत आसन से करते हैं, लेकिन केवल आसन करने से ही चित्त वृत्तियां निरुद्ध नहीं होंगी। हमें योग के सबसे पहले अंग यम को अपनाना पड़ेगा। आज योग प्रचारकों का जो समुदाय है, वह पहली भूल यही कर रहा है कि वह लोगों से यम का परिचय नहीं करा रहा है। आज के योग प्रचारक योग के दो शुरुआती अंगों – यम, नियम को छोडक़र सीधे आसन पर आ जाते हैं। यह बहुत बड़ा धोखा है। आज यह एक बड़ी विडंबना है, यह समाज के साथ घातक प्रयोग है।
पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि को प्राप्त करना होता है, यह योग के ही चरण हैं। हम धीरे-धीरे परीक्षाओं को पास करते हैं, विभिन्न चरणों से होकर विकास करते हैं, ठीक उसी प्रकार योग भी विभिन्न चरणों से बारी-बारी गुजरता है। यम, नियम को नहीं छोड़ना नहीं चाहिए।
पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि को प्राप्त करना होता है, यह योग के ही चरण हैं। हम धीरे-धीरे परीक्षाओं को पास करते हैं, विभिन्न चरणों से होकर विकास करते हैं, ठीक उसी प्रकार योग भी विभिन्न चरणों से बारी-बारी गुजरता है। यम, नियम को नहीं छोड़ना नहीं चाहिए।