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]]>जैन विद्वानों के अनुसार, जैन धर्म ने इस देश को बहुत कुछ दिया है। जैन मत के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का एक नाम भारत रखा गया था। जैन धर्म ने इस देश को वर्ण दिए। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ जी ने ही वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र – तीन वर्ण बनाए। उनके पुत्र भरत ने इन तीन वर्णों का अध्ययन किया और इनमें से जो लोग उत्तम व्रत और उत्तम चरित्र वाले थे, उन्हें लेकर ब्राह्मण वर्ण बनाया। जैन धर्म का सबसे बड़ा योगदान है अहिंसा का प्रचार। वैसे तो वैदिक ज्ञान में भी अहिंसा का उपदेश था, लेकिन जैन धर्म ने इस पर सर्वाधिक जोर दिया। जैन धर्म ने सबसे पहले वेदों का विरोध किया। ईश्वर की सत्ता को मानने से इनकार कर दिया। जैन मत के अनुसार संसार का कोई ईश्वर नहीं है। यह दुनिया का सबसे सुगठित नास्तिक धर्म है, लेकिन इसकी गिनती सबसे उदार धर्मों में भी होती है। हिन्दू धर्म को सुधारने में जैन धर्म का बड़ा योगदान है। जैन धर्म के मुनियों ने हर दौर में यह याद दिलाया कि त्याग किसे कहते हैं। वास्तव में विजयी कैसे हुआ जाता है। दीपावली का श्रेय भी जैन धर्म को दिया जाता है। जैन युग में ही भारत ने दुनिया को कई योगदान या आविष्कार दिए थे।
जैन, चार्वाक और बौद्ध तीनों ही नास्तिक मत का प्रचार करते हैं। तीनों ही ईश्वर को नहीं मानते। कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि चार्वाक से भी पहले जैन मत का दुनिया में पदार्पण हो गया था। ब्राह्मणों के पाखंड और वेदों के भटकाव की आलोचना करने वाले चार्वाक ऋषि महाभारत काल में हुए थे। महाभारत काल में २१वें तीर्थंकर नेमिनाथ हुए थे। नेमिनाथ को श्री कृष्ण का चचेरा भाई माना जाता है। लेकिन इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि जैन मत महाभारत काल और कृष्ण अवतार के पहले ही संसार में आ चुका था। चार्वाक को मानने वाले भारत में नहीं के बराबर रहे हैं, क्योंकि चार्वाक भोग को श्रेष्ठ मानते थे। इस देश ने हमेशा ही त्याग को महत्व दिया है। बौद्ध के यहां भी अहिंसा की बात होती है, लेकिन वहां भी बाद में शाकाहार कमजोर पड़ गया। नास्तिक मत में अकेला जैन ही एक ऐसा मत है, जिसने अहिंसा का दामन नहीं छोड़ा, जिसने त्याग को सर्वाधिक महत्व दिया। जैन धर्म इसीलिए भारत में हमेशा ही घुलामिला रहा और वह किसी के लिए खतरा नहीं बना।
भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व 599 में चैत शुक्ल त्रयोदशी को दुनिया के पहले गणतंत्र वैशाली गणराज्य के कुंडलपुर में एक राजपुत्र के रूप में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। उस दौर में राजा भी आम लोगों की तरह ही रहा करते थे, गणों और गणसभाओं का ही राज चलता था। उनका बचपन का नाम वद्र्धमान था और वे 30 वर्ष की आयु तक राज्यकाज के अधीन ही रहे। इस बीच उनका विवाह यशोदा जी से हुआ। उनकी एक पुत्री भी हुई। 30 की आयु में वद्र्धमान ने गृह त्याग दिया और संन्यासी हो गए। 12 वर्ष की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान हुआ, जिसे केवल्य ज्ञान कहते हैं। उसके बाद के अपने 30 साल उन्होंने धर्म की सेवा में लगा दिए। उन्हीं के समय में जैन धर्म पूर्ण विकसित हुआ और आज भी मजबूती के साथ मौजूद है। कुल 72 वर्ष की आयु में बिहार में ही नालंदा के करीब पावापुरी में भगवान महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया। उनका मोक्ष या निर्वाण जिस दिन हुआ, उसी दिन दीपावली मनाई जाती है।
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]]>जैन समाज में पर्युषण पर्व सबसे बड़ा उपासना काल माना जाता है। श्वेतांबर जैन 8 दिन और दिगंबर जैन 10 दिन इस तप-त्याग-साधना काल को मनाते हैं। यह कोई खुशियां मनाने का उत्सव नहीं है, यह आत्मसमीक्षा और आत्मसाधना का सुवसर है। जब सभी साधु और समाज के सभी लोग साधना में जुटे रहते हैं। यह धर्म की ओर लौटने का अवसर है। यह धर्म को फिर से जानने-समझने और जीने का अवसर है। यह धर्म पर पुन: चिंतन करने का समय है। यह आत्म समीक्षा का समय है, यह अपनी गलतियों को समझने और जिनको हमने कष्ट पहुंचाया है, उनसे क्षमा मांगने का अवसर है।
जो साधु-संत समाज है, वह आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में अपना समय बिताता है। समाज के जो दूसरे लोग हैं, गृहस्थ हैं, वे प्रवचन श्रवण, साधना, सेवा, सुधार, चिंतन, अध्ययन, उपवास में समय बिताते हैं। इस उपासना काल में यह कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा समय धर्मस्थल पर बिताओ, जीवन के गैर-जरूरी तामझाम से दूर रहो, बुराइयों से दूर रहो, साधुओं के सान्निध्य में रहो। साधुओं की सेवा करो। साधुओं को खुश रखो, साधुओं से सीखो, साधुओं के उपदेश पर चलो, धर्म के मार्ग पर लौटो। वर्ष भर जो गलतियों तुमसे हुई हैं, उनके लिए क्षमा मांगो। श्वेतांबर जैन मिच्छामि दुक्कड़म बोलकर सबके सामने हाथ जोड़ते हैं, तो दिगंबर जैन उत्तम क्षमा बोलकर प्रार्थना करते हैं। अनेक लोग इस काल में यथासंभव उपवास रखते हैं, निर्जला भी रहते हैं, मौन साधना भी करते हैं।
यह पर्व वर्ष 2018 में 7 सितंबर से 16 सितंबर तक मनाया जाएगा।
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]]>‘षटखण्डागम’ ताड़पत्र पर लिखा गया था और इसे अंतिम रूप से तैयार करके ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन समाज को समर्पित किया गया। इसी दिन जैन समाज बहुत ही पवित्रता और धूमधाम से श्रुति पंचमी मनाता है। अपने ग्रंथों की इस दिन पूजा करता है। इस दिन जैन शास्त्रों का पाठ किया जाता है।
जैन धर्म त्याग-तपस्या को सर्वोपरि मानता है। आज भी जैन मुनि श्रुति परंपरा को ज्यादा महत्व देते हैं, किन्तु यह सच है कि श्रुति परंपरा में भगवान महावीर के बाद के 600 वर्षों में जैन धर्म ने अपना बहुत सारा ज्ञान गंवा दिया। परंपरा में जो नए मुनि-साधु हुए, वे ज्ञान के ज्यादातर अंग को भूल गए। ऐसा अनेक विद्वान कहते हैं कि जैन ज्ञान के बारह अंगों में से केवल एक अंग ही अक्षुण बचा है।
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]]>जैन परंपरा स्वयं को सनातन मानती है। दुनिया में भले ही भगवान महावीर के बाद से जैन धर्म का आधुनिक स्वरूप प्रकट हुआ, लेकिन भगवान महावीर जैन मत के प्रथम प्रवर्तक नहीं थे, उनके पहले जैन मत में 23 तीर्थंकर हो चुके थे। जैन परंपरा के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जैन दर्शन में विशेष स्थान है। इनका जीवनकाल ईसा पूर्व 877 से 777 तक माना जाता है। अर्थात इनका जीवन सौ वर्षों का रहा। आपने 30 वर्ष की आयु में घर छोड़ा और साधु हो गए, अर्थात इन्होंने अपने जीवन के करीब 70 वर्ष धर्म को समर्पित कर दिए। पार्श्वनाथ जी ने खूब यात्राएं कीं और जैन मत का खूब प्रचार किया।
वे अपने विरोधियों को तर्क और अपने व्यवहार से जीतते थे। आपकी मूल तपस्थली बनारस ही रही, जहां आपको ज्ञान हुआ, जहां से आपने प्रचार शुरू किया। आपका जन्म बनारस के राज परिवार में हुआ था और आपने सम्मेदशिखर की पहाडिय़ों में देह त्याग किया। आप तत्कालीन समाज में प्रचलित हो चुके गलत कर्मकाण्डों और यज्ञों व हिंसा के प्रबल विरोधी थे। यज्ञों के नाम पर होने वाली हिंसा से आप बहुत विचलित होते थे। उनका मानना था कि यह कैसी प्रथा है, जो यज्ञ या पूजन में जीव हत्या को सही मानती है। आपने अहिंसा के प्रचार में अपना पूरा जीवन लगा दिया। आपका हिन्दू धर्म पर भी गहरा असर देखा जाता है। आपने देश को प्रेम और अहिंसा का सही मार्ग दिखाया।
जैन मत आम तौर पर वेद, ईश्वर और पूर्व जन्म पर विशेष विचार नहीं करता, किन्तु पार्श्वनाथ के सम्बंध में जैन कथाओं में 10 जन्मों का उल्लेख मिलता है। ग्रंथों के अनुसार, तीर्थंकर होने से पहले पार्श्वनाथ जी ने 9 जन्म लिए थे। अपने पहले के अवतार में उन्होंने चार बार देवता का अवतार लिया और तीन बार राजा बने।
पहला जन्म – ब्राह्मण
दूसरा जन्म – हाथी
तीसरा जन्म – देवता
चौथा जन्म – राजा
पांचवां जन्म – देवता
छठा जन्म – चक्रवर्ती सम्राट
सातवां जन्म – देवता
आठवां जन्म – राजा
नौवां जन्म – देवराज इंद्र
दसवां जन्म – तीर्थंकर
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