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]]>भारत में कृष्ण भक्ति का संसार बहुत समृद्ध है। यहां जब भी कृष्ण भक्ति की चर्चा शुरू होती है, तो अगली पंक्ति के भक्त-संतों में राजकुमारी मीराबाई का नाम आता है। कृष्ण भक्ति की कथा बिना मीरा बाई के पूरी नहीं होती है। वह आज भी सबके लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। उन्होंने आधुनिक युग में लोगों को अपने जीवन से सिखाया कि भगवान से कैसे मन लगाना चाहिए।
बहुत कम आयु में ही उन्हें कृष्ण भक्ति का बोध हो गया था। एक कथा है, एक दिन राजमहल के पास से एक बारात निकल रही थी, नन्हीं मीरा ने अपनी दादी से पूछा था कि किसकी बारात निकल रही है, तो जवाब मिला था, एक दूल्हे की बारात निकल रही है। तब मीरा ने प्रश्न किया कि क्या सबकी बारात निकलती है, क्या मेरी बारात भी निकलेगी? दादी ने जवाब दिया, हां तुम्हारी बारात भी आएगी। बच्ची ने फिर प्रश्न किया कि कौन बारात लेकर आएगा, तो दादी ने कहा, तुम्हारा दूल्हा बारात लेकर आएगा। फिर क्या था, मीरा पीछे पड़ गईं कि मेरा दूल्हा कौन है? दादी ने टालने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब मीरा अपने प्रश्न पर अड़ गईं, तब दादी ने उत्तर दिया, तुम्हारा दूल्हा कान्हा हैं।
यह बात नन्हीं मीरा के ह्रदय में बैठ गई कि मेरा दूल्हा कृष्ण हैं। बाद में उम्र बढ़ने पर लोक-समाज के दबाव में मीरा का विवाह एक राजघराने में राजा या राणा के छोटे भाई से हो गया, पर मीरा कृष्ण को ऐसे समर्पित हो गई थीं कि उन्हें कोई दूसरा नाम सूझता ही नहीं था। उनके पति ने भी उनके साथ कुछ गलत नहीं किया। उनका ज्यादा समय कान्हा की सेवा में ही लगता था। महल में रहते हुए भी वह किसी संत की तरह रहती थीं। साधु-संतों के साथ सत्संग करते हुए उन्होंने अपने भक्तिभाव को पूर्ण रूप से जगा लिया था। भक्ति में लीन मीरा के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वह भजन-कीर्तन करते हुए अपने महल से निकल गईं। उन्हें लोकलाज का भय दिखाकर बार-बार मना कर लाया गया। बहुत प्रयास हुए, पर वह भक्ति के मार्ग से विचलित नहीं हुईं।
मेरो तो गिरधर गोपाल , दूसरो न कोई।
जा के सर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
और
तुम बिन मेरी कौन खबर ले गोबरधन गिरधारी…
इसे ऐसे भी गाया जाता है – थे बिण म्हारे कोण खबर ले गोबरधण गिरधारी।
बताते हैं कि वह अपने पदों को कहीं लिखती नहीं थीं, केवल गाती रहती थीं। दूसरे लोग सुनकर उसे याद करते थे और मीरा के पद गाने की परंपरा बन गई। साधुओं और संतों ने मीरा को बचाए रखा। उनका बहुत समय वृंदावन और द्वारका में बीता था। वह पैदल की गाते हुए चलती थीं और जब प्रसिद्ध हो गई थीं, तब लोग उनके पीछे-पीछे चल पड़ते थे। उन्होंने शिष्य नहीं बनाए, क्योंकि वह अपनी भक्ति को निरंतर पकाने में ही जुटी हुई थीं।
मीरा बाई का भक्ति समर्पित जीवन बहुत कठिन बीता। पति के निधन के बाद उन्हें सती होने के लिए कहा गया, पर उन्होंने मना कर दिया। वह वृंदावन के लिए निकल गईं। वृंदावन में तब सबसे बड़े कृष्ण भक्त जीव गोस्वामी जी थे। मीरा बाई ने गोस्वामी जी से मिलने की कोशिश की, तो उत्तर मिला कि जीव गोस्वामी जी किसी स्त्री से नहीं मिलते हैं।
तब मीरा बाई ने प्रश्न किया, क्या वृंदावन में भगवान कृष्ण के अलावा भी कोई पुरुष है?
जीव गोस्वामी को अपनी भूल का एहसास हुआ और वह समझ गए कि मीरा बाई किस स्तर की संत हैं। भक्तशिरोमणि मीरा बाई को उन्होंने सादर मिलने के लिए बुलाया।
भक्ति क्षेत्र में यह माना जाता है कि केवल ईश्वर ही पुरुष हैं, केवल कृष्ण की पुरुष हैं, बाकी सब स्त्रियां हैं, इसी भाव से भक्ति संभव होती है। मीरा बाई को विष का प्याला भी दिया गया था, पर उन्होंने कृष्ण नाम के साथ पी लिया और उन्हें कुछ न हुआ। बाद में उनके राजघराने का दबाव उन पर बहुत बढ़ गया कि किसी तरह से मीरा बाई को मेड़ता ले आओ, ताकि वह एक जगह रहें, जगह-जगह उनके भटकने से खानदान की बदनामी होती है। जब राणा के सेवक ज्यादा अड़ गए, तब मीरा बाई ने अपने प्राण त्याग दिए। बताते हैं कि वह अपने आराध्य कृष्ण में ही समाहित हो गईं।
नाभादास के भक्तमाल में मीरा पर यह छप्पय प्रसिद्ध है –
लोक लज्जा कुल शृंखला तजि मीरा गिरिधर भजी।
सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुग हि दिखायो।।
निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो।
दुष्टन दोष विचारि मृत्यु को उद्यम कीयो।
बार न बांको भयो गरल अमृत ज्यों पीयो।
भक्ति-नीशान बजाय के काइ ते नाहिन लजी।
लोक लज्जा कुल शृंखला तजि मीरा गिरिधर भजी।
भक्ति के मार्ग में भय और लोकलाज की चिंता नहीं करनी चाहिए। जो भयभीत हो जाता है, उससे भक्ति संभव नहीं। जो बात-बात पर लोकलाज का चिंता करता है, जो संकोच करता है, जो जीवन के अन्य पदार्थों में अपना मन लगाता है, उसके लिए भक्ति कठिन है। भक्ति का श्रेष्ठ रूप है कि स्वयं को भजन में लीन रखा जाए। अपनी पूरी ऊर्जा को एक दिशा में लगा दिया जाए, तभी भक्ति का रस जागता है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि भक्त के जीवन में एक समय आता है, जब भगवान और भक्त के बीच का अंतर मिट जाता है। भक्त को भी लोग भगवान मानकर पूजने लगते हैं और यह गलत भी नहीं है। आज मेड़ता, राजस्थान में ही नहीं, देश में अनेक जगहों पर मीरा मंदिर स्थित हैं, जहां भगवान कृष्ण के साथ ही भक्तशिरोमणि मीराबाई की भी पूजा होती है।
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]]>The post दीपावली महोत्सव appeared first on agaadhworld.
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]]>The post हमारी मनमानी का कोरोना appeared first on agaadhworld.
]]>यह संसार ईश्वर द्वारा निर्मित है। इस संसार को देखकर-समझकर कभी किसी की भावना नहीं बनी कि आज या कल कोई ऐसा समृद्ध व्यक्ति या संगठन होगा, जो ऐसे ही किसी संसार की रचना कर सकेगा। संसार को ईश्वर ही बनाते हैं, वही पालन करते हैं और संहार भी कर सकते हैं। ईश्वर ने ही एक संविधान भी बनाया कि संसार में कैसे रहना है, कैसे स्वस्थ, शक्तिशाली, समृद्ध, विद्वान होकर रहना है। सही जीवन क्रमों के लिए ही ईश्वर ने संविधान की रचना की। जब इस संविधान का उल्लंघन होता है, तो उसी को अधर्म कहते हैं और उसी अधर्म से सभी तरह की विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। अधर्म से ही रोग, धन की हानि, प्रिय का वियोग बनता है। जीवन में जितने प्रकार के अड़चन आते हैं, जितने प्रकार के अपयश मिलते हैं, वो सब हमारे अधर्म का ही परिणाम हैं। जैसे ईश्वर ने कहा, सत्य बोलिए और हम असत्य बोलते हैं, तो उससे जो शक्ति पैदा हुई, उसका नाम अधर्म है। ईश्वर ने कहा, माता-पिता, विद्वान ब्राह्मण, गौ, नदियों, तीर्थों का सम्मान करें, और हम जब इसके विपरीत आचरण करते हैं, तब अधर्म उत्पन्न होता है। उससे दुख की प्राप्ति होती है, यह सनातन धर्म का सिद्धांत है। इसे सभी लोगों को मानना ही चाहिए। हम जब सही नियमों का पालन करते हैं और उससे जो शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ही धर्म कहते हैं। आज सरकारों की जो दशा है, विकास की जो गति है, जो क्रम है, उसमें मनमानी बहुत हो रही है, ईश्वरीय नियमों की पालना नहीं हो रही है। जैसे कोई अपने वरिष्ठ के निर्देशों को नहीं मानेगा, तो निश्चित रूप से उसे क्षति पहुंचेगी। हम सब यह भूल जाते हैं कि संसार को बनाने वाला कौन है, संसार का पालन करने वाला कौन है? ईश्वर के संविधान को दरकिनार करके जीवन जीने की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ी है, यही मूल कारण है। न हमें यह ध्यान है कि हमें भोजन कैसा करना है। भोजन में भी अपने यहां विधान था कि सात्विक आहार ही लेना चाहिए। उसमें किसी तरह की विकृत्ति की आशंका न हो, जिससे निद्रा में वृद्धि न हो, जिससे रोगों की वृद्धि न हो। वेदों ने कहा कि आप सात्विक आहार लीजिए, तो आप रोगों से भी बच रहेंगे। शुद्ध आहार से ही आपके मन में श्रेष्ठ भाव आएंगे। आप शरीर, बुद्धि, अहंकार से भी स्वथ्य रहेंगे। तब आपका जीवन पूर्ण तैयार होगा, अपने लिए, परिवार के लिए, जाति के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए, मानवता के लिए। तभी आपका चिंतन और निश्चय भी स्वस्थ होगा।
अभी जो बड़ी विपत्ति आ गई है, जिससे पूरा संसार संतप्त है और जन की बहुत-बहुत हानि हो रही है। व्यवसाय बिगड़ रहे हैं, आम जनजीवन की व्यवस्थाएं डगमगा रही हैं, इसका कारण है कि हम ईश्वरीय विधान की पालना नहीं कर रहे हैं।
केवल मनमानी जीवन जीने लगे हैं। बोलने लगे हैं कि जैसा हमें अच्छा लगेगा, वैसा ही करेंगे। तो जो भी अच्छा लग जाए, क्या उसी से विवाह कर लेंगे? संसार की किसी अच्छी परंपरा, किसी महर्षि, किसी संत ने यह नियम नहीं बनाया कि आप अपने रिश्ते में ही विवाह कर लें। हर सुंदर स्त्री को देख मन में गलत भाव आना पाप है और उसके लिए प्रयास करना तो और भी महा-पाप। जब व्यक्ति विधान को, संविधान को, जाति-परिवार की परंपराओं को ही नहीं मानेगा, तो कैसे चलेगा? अपने संविधानों-विधानों से और विशेष रूप से ईश्वर के विधान से व्यक्ति को कभी अलग नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए रावण, जिसका कुछ भी विधान से नहीं था। उसका आकार-प्रकार बड़ा हो गया, किन्तु विधान से नहीं हुआ, तो इसका परिणाम क्या हुआ? रावण का लगभग पूरा परिवार-समाज ही नष्ट हो गया। ‘रहा न कोऊ कुल रोवन हारा’। जिसके पास ऐश्वर्य की पराकाष्ठा थी, जिसके पास प्रभाव का अनुपम स्वरूप था, जिसके पास भोग के संसाधनों का अपरिमित समूह था, अंत में उसकी मृत्यु के बाद दो आंसू गिराने वाला कोई नहीं बचा। रावण को अधर्म का कोरोना खा गया।
अभी कोरोना का जो स्वरूप है, यह ऐसे चल रहा है, जैसे वायु का प्रसार होता है। आज जल तत्व इतना दूषित हो गया है, पूरा कचरा पुण्य नदियों में गिरा दिया जाता है। देखा ही नहीं कि इसकी भी सफाई होनी चाहिए। गंगा किनारे रहने वाला व्यक्ति गंगा की महिमा नहीं समझ रहा है। गंगा लोगों को स्वर्ग देती थी, जो अब कीड़े-मकोड़े और गंदगी के अंबार से भरने लगी है। सारा कुछ कोरोना से व्याप्त हो गया है। क्या यह बात सही नहीं है कि शुद्ध जल के अभाव में बड़ी संख्या में लोग मर रहे हैं। वायुमंडल दूषित हो गया है। अंतरिक्ष तक दूषित हो गया है। यह कोरोना भी ईश्वर विधान के उल्लंघन का प्रकोप है, दंड है, ईश्वरीय दंड।
अपनी समृद्धि को जैसे-तैसे बढ़ाने के जो प्रयास हो रहे हैं, उससे कूपित होकर ही ईश्वर ने ऐसे दंड का विधान किया है। यह किसी एक देश का दोष नहीं। आज हम देखते हैं कि कितने लोगों को कैंसर हो रहा है, एड्स हो रहा है, हृदय और किडनी की बीमारियां हो रही हैं, दुर्घटनाएं हो रही हैं, बलात्कार हो रहे हैं। जिन बच्चियों को ईश्वर का स्वरूप माना जाता है, कन्या पूजन का विधान है, मां के रूप में, बहन, बेटी के रूप में पवित्र भावना होती थी, वह अब कहां है? यह कोरोना तो कुछ भी नहीं है। ईश्वर, परंपरा, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन ऐसे हो रहा है कि पूरा संसार वैसे ही नष्ट होने की कगार पर पहुंच रहा है। जान लीजिए, हम नहीं सुधरे, तो वैसे ही संसार को नष्ट हो जाना है, जैसे रावण, कंस नष्ट हो गए।
बचने का यही तरीका है कि शास्त्रों के अनुरूप हम अपना भोजन शुद्ध करें। नहीं करेंगे, तो त्रासदी बढ़ती जाएगी।
सारे लोगों को शास्त्रों की ओर से निर्देश है, आग्रह है कि आप अपने जीवन को केवल भोग या धन से नहीं जोड़ें। जीवन का दुराचारी स्वरूप न बनाएं। शास्त्र, वेद, परंपरा के अनादि विधान से जुडक़र अपने जीवन को कोरोना से बचाएं।
आज लोभ, लालसा अनियंत्रित ढंग से बढ़ती जा रही है। लोग चाहने लगे हैं कि सबकुछ मेरा हो जाए, यह गद्दी मेरी हो जाए। जिसके पास पर्याप्त संसाधन हैं, वह भी चाहता है कि बाकी सब भी उसका ही हो जाए। सोने की लंका में वानर गए, वहां से एक टुकड़ा सोना उन्होंने नहीं उठाया। जब रामजी ने जीतने के बाद लंका से कुछ नहीं लिया, तो उनके वानर कैसे लेते?
राम जी के बारे में लिखा है कि उनका धन पवित्र था और आचरण भी पवित्र। धन पवित्र होगा, तो ही आचरण पवित्र होगा। आचरण पवित्र होगा, तो ही धन पवित्र होगा, तब ही हम पाप से बचेंगे। तब हम बीमारी, विकृत्ति, चरित्रहीनता से बचेंगे। इसलिए वेदों में लिखा है कि भगवान उसी को मिलते हैं, जिनका मन पवित्र होता है, जो तमाम प्रकार के दूषण से बचे हुए निर्मल होते हैं।
इस कोरोना से सीखने की जरूरत है कि हम विधान से ही जीवन जीएं। रोजगार, यश, पत्नी, धन, वैभव सब विधान से अर्जित करें। हमारा स्वास्थ्य भी विधान से ही पुष्ट हो। जो चीज भोजन के अनुकूल नहीं है, उसे खाकर हम अहिंसक, प्रेमी, संत, ऋषि कभी नहीं हो सकते।
महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा और प्रेम के मार्ग पर चलकर दुनिया के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर दिया कि अंग्रेजों को भागना पड़ा। गांधीजी ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि उनका भोजन पवित्र था, चरित्र पवित्र था, एक क्षण के लिए भी वे हिंसक नहीं हुए। सभी को प्रेम प्रदान करते रहे, झोंपड़ी से महल तक। अब ऐसा जीवन लुप्त हो रहा है।
हमें संसार की कुछ बढ़ती समस्याओं के बारे में भी सोचना होगा। पूरे संसार में जो बेरोजगारी बढ़ रही है, जो इसके कारण नशा बढ़ रहा है, उससे भी शरीर-नाशक, समाज-नाशक किटाणु बढ़ रहे हैं। पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहे हैं। ध्यान रहे, जब किसी व्यक्ति के पास कोई काम नहीं होता है, तब उसका सबकुछ दूषित हो जाने की आशंका रहती है। वह कुछ भी खाएगा, कैसे भी पड़ा रहेगा, कोई काम नहीं, तो बुद्धि भी दूषित होती जाएगी। तो ऐसे प्रयास होने चाहिए कि युवाओं को रोजगार देकर क्रियाशील रखा जाए। क्रियाशील लोग किटाणुओं से बचे रहते हैं, उनमें किटाणुओं से लडऩे की क्षमता भी होती है। जिसको कोई काम ही नहीं, उसका मस्तिष्क तो खराब होगा ही। जो मशीन नहीं चलेगी, वह तो गई काम से। रोजगार का स्वरूप भी ऐसा होना चाहिए कि समाज में अच्छाई उत्पन्न हो। बुराई उत्पन्न करने वाले रोजगारों को नहीं बढ़ाना भी आवश्यक है। रोजगार-काम का स्वरूप सुधारने की प्रबल आवश्यकता है।
कहते हैं कि कोरोना बुजुर्गों को निशाना बना रहा है। बुढ़ापा क्या है? बुढ़ापा मतलब मशीन जिसकी पुरानी हो गई, जो क्रियाशील नहीं। क्रियाशीलता समाप्त होती है, तो शरीर किटाणुओं का घर बनता जाता है। बड़ी उम्र के लोगों को भी भिन्न-भिन्न प्रकार से सक्रिय और स्वस्थ रहना चाहिए, तभी वे कोरोना ही नहीं, अन्य बीमारियों से भी लड़ सकेंगे।
इधर एक और बड़ा दूषण हुआ है, जिस पर ध्यान देना चाहिए। मृत देह पर असंख्य किटाणु उत्पन्न होते हैं। जैसे कोई पशु मरता है, तो गिद्ध बहुत दूर से देखकर भी आ जाते थे। ऐसे ही जब कोई मरता है, तो उस पर असंख्य किटाणु उत्पन्न होने लगते हैं। तो अपने यहां प्रथा थी कि जहां कोई मरा है, वहां कुछ खाना नहीं है, सबकुछ पहले धोना है, कुछ दिनों तक सीमित और संयमित आहार लेना है। कई-कई बार पूरा घर धुलता है, कपड़े व अन्य सामान धुलते हैं, ये सारी आवश्यक व्यवस्थाएं समाप्त हो रही हैं। लोग अब न तो श्मशान जाने पर नहाते हैं और घर लौटने पर। वैज्ञानिकों को भी यह पता है कि मृत देह पर असंख्य किटाणु पैदा होते हैं। एक किटाणु आता है, तो उसके पीछे कई आते हैं, नष्ट होने की यही प्रक्रिया है, किटाणुओं की पूरी व्यवस्था या शृंखला बनी हुई है। किटाणुओं को रोकने-नष्ट करने वाली जो व्यवस्थाएं और विधान थे, सबको लोग भूलते जा रहे हैं। आधुनिक होने के फेर में साफ-सफाई की पुरानी परंपराएं छोड़ते जा रहे हैं। प्राचीन सिद्धांतों की अवहेलना के कारण ही किटाणुओं-विषाणुओं का बाहुल्य हुआ है। सब्जियों में इंजेक्शन लगा देते हैं, कोल्ड स्टोरेज की परंपरा विकसित हो गई है, इससे भी किटाणुओं को बढ़ावा मिलता है। रोटी या ब्रेड को कई दिनों तक लोग खाते रहते हैं, उनमें अनेक किटाणु उत्पन्न हो गए होते हैं। हमारे यहां परंपरा रही है कि आहार को बहुत-बहुत शुद्ध रखना है। अब संसार में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शास्त्र परंपरा और सही जीवन व्यवस्थाओं की ओर लौटना ही होगा।
जो ईश्वरीय विधान है, उससे हम दूर हट गए हैं, इसी कारण से ऐसे प्रकोप हो रहे हैं। यह संसार के लोगों के लिए चेतावनी है। अभी जो वर्षा हो रही है, सारी फसल नष्ट हो रही है। संसार में कहीं जंगल में आग, कहीं बेमौसम बर्फ, कहीं भयंकर तूफान, यह सब ईश्वर की ओर से दंड हैं, चेतावनी है। रावण को अनेक तरह से चेतावनी मिली, शुभचिंतकों ने समझाया, लेकिन उसकी मनमानी नहीं रुकी, तो राम आए और रावण का सब नष्ट हो गया।
सभी लोगों को सावधान होकर अपने शाश्वत संविधान के दायरे में प्रयास करना चाहिए। जब हमारा आहार शुद्ध होगा, तभी हममें सही ज्ञान उत्पन्न होगा, प्रेम उत्पन्न होगा। जितने भी श्रेष्ठ भाव हैं, वो तभी उत्पन्न होंगे, जब हमारा मन शुद्ध होगा। इन सब बातों की भारतीय शास्त्रों में बड़ी चर्चा है और बाद में जो नए-नए पंथ आए, जिन्होंने ईश्वर के सही विधान को छोडक़र जीवन जीया और कोरोना के रूप में प्रकोप झेल रहे हैं। जहां गौतम बुद्ध का बड़ा प्रचार-प्रभाव था, चीन में, जहां अहिंसा को परम धर्म कहा गया, वहां लोग कोरोना के सबसे बड़े शिकार हुए हैं। वैसे ही संसार में जो लोग अनियंत्रित जीवन जीने वाले हैं, वो भी शिकार होंगे। पूरे संसार के लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। मनमानी जीवन छोडि़ए। आज नियम न मानने वाले को फांसी तक हो जाती है, तो ईश्वर का यह संसार है, किसी पार्टी, जाति, धर्म का नहीं, उसके संविधान को मानना ही चाहिए। भोजन, वस्त्र, संबंधों की मर्यादा की पालना हो, तो हमारा जीवन वैसे ही पवित्र हो जाएगा, जैसे अयोध्यावासियों का हो गया था। राम राज्य आ जाएगा, कहीं कोई कोरोना नहीं होगा। कोई संदेह नहीं, स्वयं को सुधारे-संवारे बिना कोरोना को मिटाया नहीं जा सकता। जब हम यमुना को साफ नहीं कर पा रहे हैं, तो कोरोना से कैसे बचेंगे? हम जब पुण्य नदियों, बड़े तीर्थों, बड़े शहरों को ही साफ नहीं कर पा रहे हैं, जब भोजन की सामग्री मिलावट के कोरोना से दूषित है, दूध, घी, पूरा वायुमंडल ही दूषित है, तो हम कोरोना से कैसे बचेंगे? यह कोरोना तभी नष्ट होगा, जब हम शुद्ध और स्वच्छ होंगे और तभी हम जीवन के परम लाभ को प्राप्त करेंगे।
जय सियाराम
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]]>– भारत में वर्ष 2001 में पारसियों की संख्या 69,000 थी और वर्ष 2011 में घटकर 57,000 हो गई। आतंरिक सामाजिक-व्यक्तिगत कारणों से इनकी संख्या और घट गई है, पारसी समाज भारत में अपनी आबादी को बचाने के लिए चिंचित है और प्रयासरत भी।
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ऋषिपंचमी पर कश्यप ऋषि, अत्रि ऋषि, भारद्वाज ऋषि, विश्वामित्र ऋषि, गौतम ऋषि, जमदग्नि ऋषि, वशिष्ठ ऋषि की पूजा होती है।
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]]>भगवान कृष्ण महाप्रभु विष्णु के सांतवें अवतार हैं। राम जी ने संसार को मर्यादा पालन की शिक्षा दी और कृष्ण ने संसार को आदर्शतम जीवन का पाठ पढ़ाया। हिन्दू सनातन चिंतन परंपरा बिना कृष्ण के असंभव है। गीता के रूप में संसार को उनका जो संदेश है, वह अतुलनीय है, उसके मुकाबले की कोई दूसरी शिक्षा नहीं मिलती। हिन्दू सनातन परंपरा में आध्यात्मिक गुरु बनाने की परंपरा रही है, जिनको वर्तमान भौतिक संसार में कोई गुरु नहीं मिलता, उनके लिए यह कहा गया है कि वे कृष्ण को अपना गुरु मान सकते हैं।
संसार में असंख्य महात्मा और ज्ञानी ऐसे हुए हैं कि जिनके प्रेरक कृष्ण हैं। कृष्ण ने संसार को कर्मयोग की शिक्षा दी, उन्होंने कहा कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए, किन्तु सुख इस बात में है कि वह कर्म के बदले किसी फल की कामना न करे। फल की कामना ही कष्ट का मूल है।
जीवन में आप अपना कार्य करते चलो और सोचो कि ईश्वर ही सब करा रहा है। ईश्वर तुम्हारे लिए है और तुम ईश्वर के लिए हो। कृष्ण ने ज्ञानयोग, सांख्ययोग, हठयोग की भी शिक्षा दी, किन्तु संसार को उनका सबसे बड़ा योगदान कर्मयोग है। उनके बताए कर्मपथ पर ही विश्व चल रहा है।
दूसरे धर्म के भी अनेक महात्मा कृष्ण से सीखकर आगे बढ़े हैं।
कृष्ण का जन्म अद्भुत है। जिन देवता या अवतार ने संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाया, उनका जन्म कारागार में हुआ था। पिता वसुदेव और माता देवकी की वे जैविक संतान थे, किन्तु उनका पालन-पोषण पिता नन्द और माता यशोदा ने किया। कृष्ण में शिशुकाल से ही देवगुण भरे हुए थे।
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