जब भगवान जगन्नाथ और भगवान गणेश के बीच यु्द्ध
महाप्रभु के श्रीजगन्नाथपुरी में आगमन से कुछ समय पूर्व महाराज प्रतापरुद्र के पिता पुरुषोत्तम जाना उडीसा में राज्य करते थे। अपनी युवावस्था में वे अत्यन्त बलवान और सुन्दर थे और उस समय दक्षिण भारत स्थित विद्यानगर की राजकुमारी से उनके विवाह के लिए बात चल रही थी। विद्यानगर के राजा ने पुरुषोत्तम जाना के पास सन्देश भिजवाया कि वे उनसे भेंट करने आएंंगे, परन्तु उन्होंने अपने आने की कोई निश्चित तिथि नहीं बतलायी। पुरुषोत्तम जाना के रूप, गुण, धन-सम्पदा को स्वयं निरीक्षण करने के लिए वे अपने परिवार सहित अचानक पुरी आ पहुँचे।
दैवयोग से उस समय जगन्नाथदेव की रथ-यात्रा का प्रथम दिवस था और राजा पुरुषोत्तम जाना साधारण वस्त्र पहनकर झाडूदार की भाँति श्रीजगन्नाथ देव के रथ के सामने झाडू लगा रहे थे। यद्यपि विद्यानगर के राजा पुरुषोत्तम जाना के यौवन और सौन्दर्य से बड़े प्रभावित हुए, तथापि उनके मन में पुरुषोत्तम जाना के प्रति कोई आदर भाव नहीं आया। उन्होंने सोचा- “मैं तो यह विचार करके यहाँ आया था कि पुरुषोत्तम जाना अत्यन्त धनवान और विद्वान होगा, परन्तु यह तो झाडूदार की भाँति झाडू लगा रहा है। मैं इस झाडूदार के साथ अपनी पुत्री का विवाह कदापि नहीं कर सकता।”
इस प्रकार वे पुरुषोत्तम जाना से मिले बिना ही अपने परिवार सहित अपने राज्य को लौट गये और उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह पुरुषोत्तम जाना से न करने का निश्चय कर लिया।
राजा पुरुषोत्तम जाना की युद्ध में पराजय
बहुत दिन बीत जाने पर भी जब विद्यानगर के राजा का कोई सन्देश नहीं आया, तो पुरुषोत्तम जाना ने अपने मन्त्री से इस विषय में परामर्श किया। मन्त्री ने सन्देश वाहक भेजकर इस विषय में पूछताछ की तो उन्हें सारी बात का पता चला। मन्त्री ने राजा पुरुषोत्तम जाना से कहा- “महाराज ! विद्यानगर के राजा ने आपको रथ-यात्रा के अवसर पर भगवान् श्रीजगन्नाथ देव के रथ के सामने झाडू लगाते हुए देखकर आपको एक साधारण झाडूदार ही समझा और इसलिए उन्होंने कहा है कि वह अपनी पुत्री का विवाह एक झाडूदार से नहीं करना चाहते।”
यह सुनकर राजा पुरुषोत्तम जाना को बहुत क्रोध आया और उन्होंने मन्त्री से कहा कि वह तुरन्त विद्यानगर पर आक्रमण की तैयारी करे। पुरुषोत्तम जाना ने मन-ही-मन विद्यानगर के राजा से कहा- “अभी तुम श्रीजगन्नाथदेव की महिमा से अवगत नहीं हो, इसलिए ही तुम्हारी ऐसी कुबुद्धि है।” उन्होंने अपनी सेना लेकर विद्यानगर पर आक्रमण कर दिया।
विद्यानगर के राजा गणेशजी के उपासक थे और गणेशजी की उन पर विशेष कृपा थी। इस युद्ध में गणेशजी ने स्वयं विद्यानगर के राजा की ओर से युद्ध किया और पुरुषोत्तम जाना को युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा। पुरुषोत्तम जाना रोते हुए भगवान् श्रीजगन्नाथदेव के मन्दिर में गये और बोले- “हे प्रभो! मैं तो आपका सेवक हूँ। जब मैं आपके लिए ही झाडू लगा रहा था, तो विद्यानगर नरेश ने मुझे झाडूदार समझकर मेरा अपमान किया। मेरा तो पूर्ण विश्वास था कि आप प्रत्येक परिस्थिति में मेरी सहायता करेंगे, परन्तु आपने युद्ध में मेरा साथ नहीं दिया। विद्यानगर का राजा गणेशजी का भक्त है और उन्होंने उसकी सहायता की जिसके कारण वह विजयी हुआ। मैंने आपको अपनी रक्षा के लिए पुकारा, परन्तु आप नहीं आये।
भगवान् श्रीजगन्नाथ के द्वारा राजा की सहायता
उसी रात्रि भगवान् श्रीजगन्नाथदेव ने पुरुषोत्तम जाना को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- “तुम मुझे बतलाये बिना ही युद्ध के लिए चले गये थे, इसलिए मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर पाया। अब तुम पुनः युद्ध की तैयारी करो और इस बार मैं अवश्य ही तुम्हारी सहायता करूँगा।”
यह सुनकर पुरुषोत्तम जाना अति प्रसन्न हुए और पुनः विद्यानगर पर आक्रमण की तैयारी करने लगे। अगले ही दिन उन्होंने अपने सैनिकों को एकत्रित किया और शीघ्र ही विद्यानगर पर चढ़ाई कर दी।
इधर श्रीजगन्नाथदेव और श्रीबलदेव प्रभु हृष्ट-पुष्ट घोड़ों पर सवार होकर पुरुषोत्तम जाना की सेना से कुछ मील आगे चलने लगे। श्रीजगन्नाथ जी का घोड़ा श्याम वर्ण का था और श्रीबलदेव प्रभु गौर वर्ण के घोड़े पर सवार थे। उन दोनों का परम मनोहर रूप अत्यन्त आकर्षक था तथा उनकी सुगठित देह उनके पराक्रम का परिचय दे रही थी। ग्रीष्म ऋतु का समय था उस दिन भीषण गर्मी पड़ रही थी। तभी मार्ग में उन्हें सिर पर छाछ की मटकी ले जाती हई एक वृद्धा ग्वालिन दिखायी दी। उन्होंने उससे पूछा- “मैया क्या तुम हमें कुछ छाछ पिला सकती हो? हमारा कण्ठ प्यास से सूखा जा रहा है।” उस ग्वालिनी ने उनसे पूछा- “क्या तुम्हारे पास इसका मूल्य चुकाने के लिए कुछ धन है? यदि है. तो मैं तुम्हे छाछ पिला सकती हूँ, अन्यथा नहीं।”
श्रीजगन्नाथदेव ने कहा- “हम राजा के सैनिक हैं और हम युद्ध के लिए जा रहे हैं। इस समय हमारे पास कोई धन नहीं है. परन्तु हमारे महाराज सेना के साथ पीछे आ रहे हैं और वे तुम्हें इसका उचित मूल्य चुका देंगे। आप उनसे कहना कि आपके एक श्यामवर्ण के और एक गौरवर्ण के सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर घोड़ों पर सवार होकर यहाँ से गये हैं और उन्होंने ही छाछ पी है। मैं तुम्हें दो अँगूठियाँ भी दे रहा हूँ। तुम ये अँगूठियाँ महाराज को दिखलाकर कहना कि मूल्य चुका दें।”
तब श्रीजगन्नाथजी ने उस ग्वालिनी को दो अँगूठियाँ दे दीं और उससे छाछ का सम्पूर्ण घड़ा लेकर उन्होंने श्रीबलदेव सहित अपनी प्यास बुझायी। इसके पश्चात् तृप्त होकर वे दोनों आगे चल दिये।
कुछ समय बाद राजा पुरुषोत्तम जाना अपने सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचे, तो उस ग्वालिनी ने राजा से कहा- “महाराज ! आपके दो सैनिक कुछ समय पूर्व यहाँ से गये हैं और उन्होंने मुझसे छाछ ली थी और यह कहा था कि उसका मूल्य पीछे आ रहे महाराज ही देंगे।”
और राजा पुरुषोत्तम जाना ने कहा- “मेरा तो कोई भी सैनिक मुझसे आगे नहीं गया है।” तब उस ग्वालिनी ने राजा को वे दो अँगूठियाँ दी और कहा- “इन अँगुठिओं के स्वामियों ने मुझसे छाछ ली थी।”
राजा ने देखा कि वे स्वर्ण की अँगूठियाँ हैं जिन पर जगन्नाथदेव और बलदेव ये दो नाम अङ्कित थे। इन्हें देखकर राजा पुरुषोत्तम जाना अति प्रसन्न हो गये, क्योंकि ये सोने की दोनों अंगूठियाँ स्वयं उन्होंने स्वर्णकार से बनवाकर श्रीजगन्नाथ देव और श्रीबलदेव प्रभु को अर्पित की थीं। राजा सोचने लगे-“इस बार मैं अवश्य ही विजयी होऊँगा, क्योंकि स्वयं श्रीजगन्नाथदेव और श्रीबलदेव प्रभु मेरी सहायता के लिए आगे चल रहे हैं।”
तब उन्होंने उस ग्वालिनी को विशाल भूमि खण्ड देकर कहा- “तुम परम सौभाग्यशाली हो कि तुम्हारे हाथों से बनी छाछ को स्वयं भगवान् जगन्नाथ तथा बलभद्र ने पान किया है। आस-पास जितनी भूमि दिखायी दे रही है, वह भूमि आज से तुम्हारी है, तुम इस भूमिका जो करना चाहो, कर सकती हो। इसके द्वारा तुम्हारी अनेक पीढ़ियों का भरण-पोषण हो जायेगा।” इतना कहकर महाराज अपनी सेना सहित आगे बढ़ गये। उस वृद्धा स्त्री के वंशज आज तक उसी भूमि पर निवास कर रहे हैं।
राजा पुरुषोत्तम जाना ने विद्यानगर पर आक्रमण कर शत्रु की सेना को परास्त कर दिया। गणेशजी विद्यानगर नरेश की ओर से युद्ध कर रहे थे। श्रीजगन्नाथदेव और श्रीबलदेव प्रभु ने उन्हें परास्त कर बन्दी बना लिया। यद्यपि गणेशजी इस बात से भली भाँति परिचित थे कि श्रीकृष्ण ही परम भगवान् हैं, तथापि उन्होंने उनके शत्रु का साथ दिया, इसलिए श्रीकृष्ण और श्रीबलदेव प्रभु ने उन्हें ‘भण्ड (ठग) गणेश’ नाम दिया। राजा पुरुषोत्तम जाना ने विद्यानगर नरेश, उनके मन्त्रियों और राजकुमारी को बन्दी बना लिया। पूरी पहुँचकर राजा पुरुषोत्तम जाना ने निश्चय किया कि वे उससे विवाह नहीं करेंगे, अपितु अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उसका विवाह एक झाडूदार से करवा देंगे। यह सुनकर वह राजकुमारी शोक में डूबकर विलाप करने लगी।
राजकुमारी को शोकाकुल होकर रोते देखकर राजा पुरुषोत्तम जाना के दयालु मन्त्री ने उसे सान्त्वना प्रदान की और राजा से बोले- “हे राजन् ! आप कृपया इस कार्य में शीघ्रता न करें। थोड़े समय में भलीभाँति ढूँढ़कर हम किसी बहुत ही दीन-हीन और सम्पूर्ण रूप से निर्धन किसी झाडूदार से इसका विवाह करा देंगे।”
राजा ने मन्त्री की बात मान ली तथा उन्हीं पर ही झाडूदार को ढूँढ़ने का भार सौंप दिया। मन्त्री ने उस राजकुमारी को कुछ समय तक छिपाकर, उसे अपनी पुत्री की भाँति अपने पास रखा तथा जब अगले वर्ष रथ-यात्रा के समय राजा पुरुषोत्तम जाना भगवान् श्रीजगन्नाथदेव के रथ के सामने झाडू लगा रहे थे, उसी क्षण मन्त्री के परामर्श अनुसार राजकुमारी ने सभी के सामने राजा के गले में एक माला अर्पण की तथा कहा- “मैं इसी झाडूदार से विवाह करूँगी।” मन्त्री ने भी राजकुमारी के इस कथन का अनुमोदन करते हुए कहा- “हाँ, हाँ, यह तो अति सुन्दर प्रस्ताव है। महाराज तो दीन-हीन झाडूदार ही हैं, राजा होकर भी झाडू लगा रहे हैं तथा साथ-ही-साथ यह सम्पूर्ण रूप से निर्धन भी है, क्योंकि इनका धन, जन, देह, मन तथा सर्वस्व भगवान् जगन्नाथजी का ही है। इनका अपना तो कुछ है ही नहीं। अतः इन से निर्धन और दीन-हीन झाडूदार हमें कहाँ मिलेगा। अतः हे राजकुमारी ! ऐसे व्यक्ति से विवाह करके आप झाडूदार की पत्नी बन गयी तथा मैंने भी अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी।”
तभी राजकुमारी रोने लगी और राजा पुरुषोत्तम जाना का हृदय भी पिघल गया। कुछ समय पश्चात् उन दोनों का विधिवत् विवाह हो गया और उन्हें अत्यन्त सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। वही राजकुमार बाद में महाराजा प्रतापरुद्र बने जो श्रीचैतन्य महाप्रभु के पार्षद भी हुए। परम करुणामय भगवान् श्रीजगन्नाथदेव निश्चित ही पतित-पावन हैं, शरणागतों के रक्षक हैं और भक्त-वत्सल हैं।