बुद्ध पूर्णिमा

Buddha-Purnima

गौतम बुद्ध ने क्यों जन्म लिया ?

भारतीय धर्म समाज में जब कर्मकांड बहुत ज्यादा बढ़ गया, जब जाति-व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था समाज को पीडि़त करने लगी, जब पंडित समाज का आचरण व्यावहारिकता से दूर चला गया, जब लोग अलौकिकता या परलोक के चक्कर में अपना जीवन व इहलोक बिगाडऩे लगे, तब भारतीय धर्म जगत में गौतम बुद्ध ने एक सूर्य की तरह अवतार लिया। वे वेद को प्रमाण नहीं मानते थे। वे शास्त्रों की बातों को नहीं मानते थे। वे कर्मकांडों को नहीं मानते थे, वे ईश्वर और आत्मा को नहीं मानते थे। वे नैतिक जीवन पर जोर देते थे। ऐसा लगता है कि गौतम बुद्ध ने हिन्दू या सनातन धर्म को नष्ट होने से बचाने के लिए ही जन्म लिया।

बौद्ध धर्म से पहले भी हिन्दू सनातन धर्म में वैशाख पूर्णिमा का विशेष महत्व रहा है। इस दिन स्नान, दान की विशेष परंपरा रही है। वैशाख पूर्णिमा को ही गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था, इसी दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन वे महानिर्वाण को प्राप्त हुए थे। ईस्वी सन के हिसाब से देखें, तो गौतम बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 563 में लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। उन्हें ज्ञान की प्राप्ति बोधगया, भारत में हुई और उन्होंने ईसा पूर्व 483 में कु़शीनगर, भारत में अपना देह त्यागा। बुद्ध पूर्णिमा के दिन तीनों ही स्थानों पर बौद्ध समाज बड़ी संख्या में जुटता है।


गौतम बुद्ध को कैसे समझें?

गौतम बुद्ध का एक प्रसिद्ध उपदेश है – अप्प दीपो भव:। अर्थात स्वयं अपना दीपक बनो। शास्त्र की मत सुनो, परंपराओं पर मत जाओ, स्वयं के बुद्धि विवेक का प्रयोग करो, स्वयं जागो, स्वयं अपना प्रकाश बनो। जीवन भर बुद्ध यही बोलते रहे कि धर्म के क्षेत्र में किसी के भरोसे मत रहना, अपना रास्ता स्वयं तलाश करना। जरूरी नहीं कि किसी एक को सिद्धि जिस मार्ग से मिली हो, उसी मार्ग से तुम्हें सिद्धि मिले। सबका अपना-अपना जीवन, सबका अपना-अपना मार्ग होता है। श्रेष्ठ नैतिक व्यावहारिक आचरण के साथ ध्यान लगाओ, परम आनंद मिलेगा। संसार दुख से भरा हुआ है, खुद को ठीक से जानोगे, तो दुखों से उबर जाओगे।


क्या वे नौवें अवतार थे?

गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश और आचरण से भारतीय समाज को इतना प्रभावित किया कि सनातन धर्म के बड़े पंडितों ने भी घुटने टेक दिए। ऐसा लगता है कि इसी हार के क्रम में जल्दबाजी में हिन्दू चिंतकों ने गौतम बुद्ध को नौवां अवतार घोषित कर दिया। नौवां अवतार घोषित करने का उद्देश्य यह था कि हिन्दू धर्म में ही बुद्ध की विद्याएं शामिल हो जाएं। हिन्दुओं ने गौतम बुद्ध का अवतार मान लिया, लेकिन बौद्धों ने ऐसा कुछ नहीं माना। वे भी अगर गौतम बुद्ध को अवतार मानते, तो पूर्व के सभी आठ अवतारों को भी स्वीकार करना पड़ता। यह कैसे स्वीकार कर लिया जाए कि विष्णु का नौवां अवतार अपने पहले के अवतारों को चुनौती दे रहा था? परंपराओं का विरोध कर रहा था। यदि हम तथ्य और तर्क को देखें, तो बुद्ध को नौवां अवतार घोषित नहीं किया जा सकता, लेकिन भारतीय धर्म चिंतन में उन्हें नौवां अवतार मान लेने में किसी को समस्या नहीं होनी चाहिए।


बौद्ध धर्म क्यों सिमट गया?

इतिहास में यही मिलता है कि बुद्ध भले ही क्षत्रिय थे, लेकिन उनके धर्म में ज्यादातर पिछड़ी जाति के लोग ही शामिल हुए। ऐसा लगता है कि तब पिछड़ी जाति के लोग कर्मकांडों से विशेष रूप से पीडि़त थे। यहां तक कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले सम्राट अशोक भी अगड़ी जाति के नहीं थे। उस दौर में भारतीय पिछड़ों में एक बेचैनी दिखती है। सम्राट अशोक के दादा सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य जैन मुनि हो गए थे। चंद्रगुप्त के पुत्र बिम्बसार भी जैन साधुओं के निकट थे, लेकिन ऐसा लगता है कि अशोक पर जैन धर्म का प्रभाव नहीं पड़ा। वे सम्राट होते हुए भी बौद्ध हुए और अपने पूरे परिवार को बौद्ध धर्म की सेवा-प्रचार में लगा दिया।
खैर बुद्ध के जीवित रहते तक तो बौद्ध धर्म में आचरण की श्रेष्ठता बनी रही, लेकिन बाद में बुद्ध के ज्ञान को एक तरह से भुला दिया गया। बुद्ध की मूर्तियां बनने लगीं, बुद्ध की पूजा शुरू हो गई। बुद्ध ने कहा था कि अपना दीपक स्वयं बनो, लेकिन यहां तो लोग बुद्ध में ही शरण खोजने लगे। बुद्ध ने संकेत किया था कि अपना धर्म स्वयं गढ़ो, लेकिन यहां तो स्थापित धर्म या संघ की शरण में आने का आह्वान किया जाने लगा। बौद्ध की मौलिकता प्रभावित हो गई, वे चीन, श्रीलंका, जापान, म्यांमार व अन्य कुछ देशों में तो प्रभावी रहे, लेकिन भारत में कमजोर पड़ गए।

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