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]]>बहाई मत के विधिवत संस्थापक बहाउल्लाह 29 मई 1892 को दुनिया से विदा हुए थे। तब उनकी उम्र 75 वर्ष थी। उनका अंतिम समय बहजी भवन, इजराइल में बीता था। अपनी जिंदगी के अच्छे साढ़े बारह वर्ष उन्होंने इस भवन में बिताए थे। यही वह समय है, जब बहाई पंथ दुनिया में फैला, उसे संस्थागत रूप मिला और उसकी वैचारिक भूमि मजबूत हुई। उनकी जिंदगी लगभग हमेशा ही निर्वासन, नजरबंदी, निगरानी या कैद में बीती। बहुत तकलीफें झेलने के बावजूद बहाउल्लाह (मूल नाम – मिर्जा हुसैन) ने अपने धर्म पथ या मत को नहीं छोड़ा। 29 मई की सुबह शांत भाव में ही वे दुनिया से विदा हुए थे। उनके निधन के 9 दिन बाद उनकी वसीयत उजागर हुई, जिसमें उन्होंने अपने विद्वान व प्रिय पुत्र अब्दुल बहा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। बहाउल्लाह अरब दुनिया में एक अलग ही प्रेमपूर्ण विचार के प्रचारक के रूप में माने जाते रहे हैं। उनके विरोधियों ने भी उनके मतों को बाद में स्वीकार किया और खामोश हो गए।
बहाई मत के तत्व के मूल प्रचारक बॉब थे, और उनके ही विचारों को बहाउल्लाह ने आगे बढ़ाया, लेकिन यह संयोग ही है कि बॉब और बहाउल्लाह की कभी मुलाकात नहीं हुई। बहाउल्लाह जब 27 वर्ष के थे, तब वे बॉब के विचारों के समर्थक हो गए। बॉब (सैयद अली मोहम्मद शिराजी) और बहाउल्लाह कभी मिले नहीं, लेकिन दोनों के बीच पत्र व्यवहार होता रहा। गौर करने की बात है कि बॉब उम्र में बहाउल्लाह से 2 वर्ष छोटे थे। बॉब को लंबी जिंदगी नसीब नहीं हुई, उन्हें मात्र 24 की उम्र में ज्ञान हुआ कि वे परमेश्वर के दूत हैं। उन्हें अपने बॉबवाद के प्रचार के लिए ज्यादा समय ईश्वर ने नहीं दिया। बॉब मात्र 30 की उम्र में 1850 में दुनिया से विदा हो गए। उन्हें अपनी विदाई का अहसास हो गया था, उन्होंने अपनी कलम व अन्य अनेक निशानियां, कागजात बहाउल्लाह के पास भेज दिए थे।
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]]>बहाई पंथ में रिदवान महोत्सव सबसे महत्वपूर्ण त्योहार माना जाता है। यह पूरा त्योहार 12 दिवसीय है। बहाई पंथ की मजबूत आधारशिला रखने वाले बहाउल्लाह को जब बगदाद से निष्कासित किया गया। तब ईस्वी सन 1863 में वे बगदाद के बाहर बने एक बगीचे में 12 दिनों के लिए आकर ठहरे। उन्हें पहले तेहरान से बगदाद निष्कासित किया गया था और बगदाद से इस्तानबुल भेजा जा रहा था। जब वे इस बाग में आए, तब इस महोत्सव की शुरुआत हुई और महोत्सव का समापन 12वें दिन हुआ, और वे बाग से चले गए। इस बाग को रिदवान बाग भी कहा जाता है।
बहाई पंथ के मूल विचारक-प्रवर्तक महान बॉब ने देवदूत के आने की घोषणा पहले ही कर दी थी। बॉब को भी तत्कालीन सत्ता ने स्वीकार नहीं किया और बहाउल्लाह जब सामने आए, तब उन्हें भी सत्ता के हाथों अन्याय झेलना पड़ा। मान्यता है कि बहाउल्लाह को देवदूत होने का अहसास पहले ही हो गया था, करीब एक वर्ष तक अब्दुल बहा सहित कुछ प्रिय शिष्यों को ही उन्होंने यह सूचना दी और गोपनीयता बरतने के लिए कहा। जब वर्ष 1863 में वे रिदवान बाग में 12 दिन रहे, तब उन्होंने खुलकर अपने देवदूत होने की घोषणा कर दी। इसी खुशी में उनके शिष्यों और समर्थकों ने रिदवान महोत्सव की शुरुआत की।
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बहाई पंथ के तीसरे प्रमुख अब्दुल बहा ने 28 नवंबर 1921 में देह त्याग किया था। अब्दुल बहा (अब्बास एफिंदी) के समय बहाई पंथ का दुनिया में खूब प्रचार हुआ। वे 23 मई 1844 को उसी दिन जन्मे थे, जिस दिन बहाई पंथ के मूल प्रथम प्रवर्तक, गुरु या प्रमुख बाब (सैयद अली मुहम्मद शिराजी) ने पंथ का प्रचार शुरू किया था। महान बाब के बाद बहा उल्लाह (मिर्जा हुसैन-अल नूरी) ने बहाई पंथ को आधिकारिक रूप से सशक्त किया और आगे बढ़ाया, इसलिए बहा उल्लाह को ही बहाई धर्म का व्यावहारिक प्रवर्तक माना जाता है। बहा उल्लाह के सबसे बड़े पुत्र अब्दुल बहा थे। अब्दुल बहा जब मात्र 8 वर्ष के थे, तब उनके पिता को कैद कर दिया गया। उनका परिवार अरब देशों में मजबूरी और अत्याचार के कारण जगह बदल-बदल कर रहा। प्रताडि़त होने के बाद भी बहाई मत के लोग झुके नहीं। बहाई सद्भाव फैलता चला गया।
अब्दुल बहा के 11 भाई-बहन थे। बहा उल्लाह ने लिखित रूप से अब्दुल बहा को पंथ का प्रमुख घोषित किया था, लेकिन परिवार में ही इसे लेकर विवाद हुआ। विशेष रूप से मिर्जा मोहम्मद अली के साथ अब्दुल बहा का अनावश्यक विवाद चला, हालांकि पंथ के अधिकतर लोगों ने अब्दुल बहा को ही अपना नेता माना। यह संघर्ष तीखा हुआ था, इसलिए अपने बाद अब्दुल बहा ने पंथ के नेता का पद किसी को नहीं दिया। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि पंथ के आगे का काम एक समिति (यूनिवर्सल हाउस ऑफ जस्टिस) करेगी, जिसका प्रमुख पंथ का मात्र अभिभावक कहलाएगा। अब्दुल बहा की तीन बेटियां थीं, उन्होंने अपने सबसे बड़े नाती शोघी एफिंदी को बहाई मत का अभिभावक बनाया। शोघी एफिंदी का असमय निधन हुआ और वे किसी को उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर पाए, इसलिए वे बहाई मत के पहले और अंतिम अभिभावक के रूप में जाने जाते हैं। बहाई मत का पूरा प्रचार-प्रसार-देख-रेख यूनिवर्सल हाउस ऑफ जस्टिस के जरिये होता है।
अब्दुल बहा ने भी अपने पिता की धारा को आगे बढ़ाया। मुस्लिम देशों का यह अकेला पंथ है, जो केवल शांति और सद्भाव का संदेश देता है, जो खून-खराबे के पूरी तरह खिलाफ है। वे चाहते थे कि नस्ल भेद और राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर पूरी दुनिया एकजुट होकर एक आध्यात्मिक विश्व का निर्माण करे, जहां किसी प्रकार का संघर्ष न हो। अब्दुल बहा के जीवन का भी एक लंबा समय कैद और नजरबंदी में बीता था। वे 64 की उम्र में ही आजाद और स्थिर हो पाए। उन्होंने यूरोप तक अपने संदेश को पहुंचाया और अंतत: हाइफा पहुंचे। इस्राइल में स्थित हाइफा में बाब का स्थान है, वहीं अब्दुल बहा को भी विश्राम स्थान दिया गया। आज यह जगह बहाइयों के लिए पूजनीय तीर्थ है।
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