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Abdul baha, The Great Son of bahaullah, अब्दुल बहा

बहाइयों के ‘द मास्टर’ : अब्दुल बहा


बहाई पंथ के तीसरे प्रमुख अब्दुल बहा ने 28 नवंबर 1921 में देह त्याग किया था। अब्दुल बहा (अब्बास एफिंदी) के समय बहाई पंथ का दुनिया में खूब प्रचार हुआ। वे 23 मई 1844 को उसी दिन जन्मे थे, जिस दिन बहाई पंथ के मूल प्रथम प्रवर्तक, गुरु या प्रमुख बाब (सैयद अली मुहम्मद शिराजी) ने पंथ का प्रचार शुरू किया था। महान बाब के बाद बहा उल्लाह (मिर्जा हुसैन-अल नूरी) ने बहाई पंथ को आधिकारिक रूप से सशक्त किया और आगे बढ़ाया, इसलिए बहा उल्लाह को ही बहाई धर्म का व्यावहारिक प्रवर्तक माना जाता है। बहा उल्लाह के सबसे बड़े पुत्र अब्दुल बहा थे। अब्दुल बहा जब मात्र 8 वर्ष के थे, तब उनके पिता को कैद कर दिया गया। उनका परिवार अरब देशों में मजबूरी और अत्याचार के कारण जगह बदल-बदल कर रहा। प्रताडि़त होने के बाद भी बहाई मत के लोग झुके नहीं। बहाई सद्भाव फैलता चला गया।

उत्तराधिकार का संघर्ष

अब्दुल बहा के 11 भाई-बहन थे। बहा उल्लाह ने लिखित रूप से अब्दुल बहा को पंथ का प्रमुख घोषित किया था, लेकिन परिवार में ही इसे लेकर विवाद हुआ। विशेष रूप से मिर्जा मोहम्मद अली के साथ अब्दुल बहा का अनावश्यक विवाद चला, हालांकि पंथ के अधिकतर लोगों ने अब्दुल बहा को ही अपना नेता माना। यह संघर्ष तीखा हुआ था, इसलिए अपने बाद अब्दुल बहा ने पंथ के नेता का पद किसी को नहीं दिया। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि पंथ के आगे का काम एक समिति (यूनिवर्सल हाउस ऑफ जस्टिस) करेगी, जिसका प्रमुख पंथ का मात्र अभिभावक कहलाएगा। अब्दुल बहा की तीन बेटियां थीं, उन्होंने अपने सबसे बड़े नाती शोघी एफिंदी को बहाई मत का अभिभावक बनाया। शोघी एफिंदी का असमय निधन हुआ और वे किसी को उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर पाए, इसलिए वे बहाई मत के पहले और अंतिम अभिभावक के रूप में जाने जाते हैं। बहाई मत का पूरा प्रचार-प्रसार-देख-रेख यूनिवर्सल हाउस ऑफ जस्टिस के जरिये होता है।

अब्दुल बहा का संदेश

अब्दुल बहा ने भी अपने पिता की धारा को आगे बढ़ाया। मुस्लिम देशों का यह अकेला पंथ है, जो केवल शांति और सद्भाव का संदेश देता है, जो खून-खराबे के पूरी तरह खिलाफ है। वे चाहते थे कि नस्ल भेद और राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर पूरी दुनिया एकजुट होकर एक आध्यात्मिक विश्व का निर्माण करे, जहां किसी प्रकार का संघर्ष न हो। अब्दुल बहा के जीवन का भी एक लंबा समय कैद और नजरबंदी में बीता था। वे 64 की उम्र में ही आजाद और स्थिर हो पाए। उन्होंने यूरोप तक अपने संदेश को पहुंचाया और अंतत: हाइफा पहुंचे। इस्राइल में स्थित हाइफा में बाब का स्थान है, वहीं अब्दुल बहा को भी विश्राम स्थान दिया गया। आज यह जगह बहाइयों के लिए पूजनीय तीर्थ है।