आदि शंकराचार्य जयंती
सनातन ज्ञान के आदि निर्देशक
हिन्दू सनातन चिंतन के संरक्षण में आदि शंकराचार्य जितना योगदान किसी अन्य का नहीं है। आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में हुआ था। उन्हें जीवन में मात्र 32 वर्ष ही मिले, लेकिन उन्होंने इतने ही वर्षों में अतुलनीय कालजयी कार्य किए। वे केरल के थे, मूलत: मलयाली भाषी थे और संस्कृत के अपने समय में सबसे बड़े विद्वान थे। आपको जानो बिना हिन्दू सनातन संस्कृति को समझा नहीं जा सकता। आपके जीवन, कर्म और आदर्श को जब लोग देखते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि ऐसा भी कोई ऋषि संत हो सकता है। जिसने महज 32 वर्ष के जीवन में पूरा देश देख लिया हो, और न केवल देखा हो, बल्कि देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किए हों। ज्योतिर्मठ, शारदा मठ, गोवद्र्धन मठ, ऋंगेरी मठ। वे दक्षिण से आए थे और दक्षिण में ही उन्होंने देह त्यागा। उन्होंने अपने समय अनेक बड़े विद्वानों को धर्म शास्त्रार्थ में तर्क पूर्वक पराजित किया। वे ज्ञान ही नहीं, भाव से भी भरे हुए थे। उन्होंने उत्तर भारत के विद्वान संत को दक्षिण भारत में पहला शंकराचार्य बनाया। दक्षिण भारत के विद्वान संत को उत्तर भारत में शंकराचार्य बनाया। पश्चिम के विद्वान संत को पूरब में और पूरब के विद्वान संत को पश्चिम में स्थापित किया। ऐसा बताया जाता है कि कामकोटि पीठ की स्थापना के बाद उन्होंने वर्ष 820 में देह त्याग दिए।
ज्ञानी भारत के निर्माता
भारत की भौगोलिक सीमा का निर्धारण करने वाले जगदगुरु आदि शंकराचार्य बहुत कम आयु में ही ऐसे संत-विद्वान-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे कि उनकी कीर्ति पताका आज तक फहरा रही है। वह बहुत कम आयु में हठ करके संन्यासी हो गए थे। वे अपनी मां के इकलौते पुत्र थे, वादे के मुताबिक जब माता का अंत समय आया, तब आदि शंकराचार्य उत्तर भारत से दक्षिण भारत पहुंच गए थे। पूरे भारत को उन्होंने पैदल ही घूमकर देखा और जाना था। देश के चार दिशाओं में चार मठ उन्होंने स्थापित किए थे, ये मठ एक तरह से आधुनिक आध्यात्मिक सनातन भारत की सीमा के संकेतक थे। उनके मठ-शिक्षा केंद्र आज भी विराजमान हैं और ज्ञान-धन से समृद्ध हैं। बहुत कम आयु में उन्हें खूब विद्वता प्राप्त हो गई थी। उनके हजारों शिष्य थे, जिनमें से चार शिष्यों को उन्होंने जगदगुरु शंकराचार्य बनाया था। यह उनकी खूबी थी कि उन्होंने उत्तर के संत को दक्षिण में शंकराचार्य बनाया और दक्षिण के संत को उत्तर में और एक तरह से पूरे देश को आध्यात्मिक, धार्मिक और सामाजिक सूत्र में हमेशा के लिए पिरो दिया। आइए उनके प्रमुख चार शिष्यों के बारे में जानते हैं-
गोवद्र्धन मठ, पुरी के प्रथम शंकराचार्य पद्मपाद
उनके एक परम प्रिय शिष्य थे सनन्दन, जो गुरु के ज्ञान में आकंठ डूबे रहते थे। सनन्दन को गुरु पर अटूट विश्वास था। एक बार सनन्दन किसी काम से अलकनन्दा के पार गए हुए थे। आदि शंकराचार्य अपने दूसरे शिष्यों को यह दिखाना चाहते थे कि सनन्दन उन्हें क्यों ज्यादा प्रिय हैं। उन्होंने तत्काल सनन्दन को पुकारा, सनन्दन शीघ्र आओ, शीघ्र आओ। अलकनन्दा के उस पर आवाज सनन्दन तक पहुंची, उन्होंने समझा गुरुजी संकट में हैं, इसलिए उन्होंने शीघ्र आने को कहा है। वे भाव विह्वल हो गए। नदी का पुल दूर था, पुल से जाने में समय लगता। गुरु पर अटूट विश्वास था, उन्होंने गुरु का नाम लिया और तत्क्षण जल पर चल पड़े। नदी पार कर गए। आदि शंकराचार्य ने प्रभावित होकर उनका नाम रखा – पद्मपाद। पद्मपाद बाद में गोवद्र्धन मठ पुरी के पहले शंकराचार्य बने।
शृंगेरी मठ, पहले शंकराचार्य सुरेश्वराचार्य
आदि शंकराचार्य के दूसरे परम शिष्य मंडन मिश्र उत्तर भारत के प्रकाण्ड विद्वान थे, जिनको शास्त्रार्थ में आदि शंकराचार्य ने पराजित किया था। मंडन मिश्र की पत्नी उभयभारती से आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ जगत प्रसिद्ध है। यहां सिद्ध हुआ कि अध्ययन और मनन ही नहीं, बल्कि अनुभव भी अनिवार्य है। अनुभव से ही सच्चा ज्ञान होता है। मंडन मिश्र शास्त्रार्थ के बाद ही आदि शंकराचार्य की शरण में आए थे और गुरु के लिए पूरी तरह से समर्पित हो गए थे। मंडन मिश्र को आदि शंकराचार्य ने सुरेश्वराचार्य नाम दिया और दक्षिण में स्थित शृंगेरी मठ के पहले शंकराचार्य के रूप में स्थापित किया।
शारदा पीठ, द्वारकाधाम, पहले शंकराचार्य हस्तामलक
एक गांव में प्रभाकर नामक प्रतिष्ठित सदाचारी ब्राह्मण रहते थे। उन्हें केवल एक ही बात का दुख था कि उनके एक ही पुत्र पृथ्वीधर जड़ और गूंगे थे। लोग उन्हें पागल भी समझ लेते थे, बच्चे उनकी पिटाई करते थे, लेकिन वह कुछ न कहते था। परेशान माता-पिता पृथ्वीधर को आदि शंकराचार्य के पास ले गए और बालक को स्वस्थ करने की प्रार्थना की। आदि शंकराचार्य ने कुछ सोचकर उस बालक से संस्कृत में कुछ सवाल किए। चमत्कार हो गया, बालक भी संभवत: ऐसे प्रश्न की प्रतीक्षा में था, उसने संस्कृत में ही बेजोड़ जवाब दिए। गुरु ने एक जड़ से दिखने वाले बच्चे में भी विद्वता को पहचान लिया था, उन्होंने उस बालक को शिष्य बनाते हुए नया नाम दिया -हस्तामलक। हस्तामलक ही बाद में भारत के पश्चिम में स्थित शारदा पीठ-द्वारकाधाम के प्रथम शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
ज्योतिर्पीठ, जोशीमठ, प्रथम शंकराचार्य तोटकाचार्य
शृंगेरी में निवास करते समय आदि शंकराचार्य को गिरि नामक एक शिष्य मिला। वह विशेष पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन आज्ञाकारिता, कर्मठता, सत्यवादिता और अल्पभाषण में उसका कोई मुकाबला न था। वह गुरु का अनन्य भक्त था। एक दिन वह गुरुजी के कपड़े धोने गया, उधर आश्रम में कक्षा का समय हो गया, बाकी शिष्य आदि शंकराचार्य से अध्ययन प्रारम्भ करने को कहने लगे, जबकि गुरुजी गिरि की प्रतीक्षा करना चाहते थे। कुछ शिष्यों ने गिरि के ज्ञान और उसके अध्ययन की उपयोगिता पर प्रश्न खड़े किए, तो आदि शंकराचार्य को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने गिरि को तत्क्षण व्यापक ज्ञान उपलब्ध कराकर असीम कृपा की और यह प्रमाणित कर दिया कि अनन्य गुरु भक्ति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। गिरि को उन्होंने तोटकाचार्य नाम दिया और बाद में उत्तर में स्थापित ज्योतिर्पीठ का प्रथम शंकराचार्य बनवाया।