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सावन में कांवड़ यात्रा अर्थात शिव यात्रा

भारत में सावन का विशेष महत्व है और उसमें भी विशेष रूप से सावन सोमवार का महत्व सबसे ज्यादा है। शिव की पूजा और कांवड़ यात्रा की परंपरा है। आखिर इसके पीछे क्या प्राकृतिक कारण है? कांवड़ यात्रा वास्तव में शिव अर्थात प्रकृति के प्रति आभार जताने की यात्रा है। जब लोग शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं, तो वास्तव में आभार जता रहे होते हैं, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा ?

शिव आदिदेव, महादेव माने गए हैं। सनातन धर्म से परे भी शिव की महिमा है। वे प्रकृति के प्रतीक हैं। गरमी के दिनों में धरती तपती है, तब ईश्वर से वर्षा की कामना की जाती है। भारत में गरमियों में अष्टजाम की परंपरा है। ईश्वर की परिक्रमा लगाते हुए, गाते-झूमते-नाचते हुए अखंड प्रार्थना करना भारत में एक मजबूत परंपरा है। ईश्वर की कृपा से तपती जेठ के बाद आषाढ़ का महीना आता है और बादल बरसने लगते हैं। नगर, गांव, पहाड़, जंगल सब भीग जाते हैं। खूब बारिश होती है, घर से निकलना कठिन हो जाता है। जलाशयों और नदियों में खूब पानी आ जाता है। आषाढ़ में संभलने के बाद सावन का महीना आता है। सावन में बादल रुक-रुककर बरसते हैं। सावन की झड़ी बहुत प्रसिद्ध है, यह ऐसा समय है, जब घर से बाहर निकला जा सकता है। वर्षा का शुरुआती प्रहार खत्म हो गया होता है। मनुष्यता को सहलाते, धीरे-धीरे नहलाते, तृप्त करते हुए वर्षा होती है। चारों ओर हरियाली छा जाती है, नवजीवन-सा मिल जाता है। मनुष्य भविष्य को लेकर आश्वस्त हो जाता है कि ईश्वर की कृपा बनी हुई है, बारिश हो रही है, इतना पानी आ गया है कि आगामी वर्ष में फसल और जीवन के लिए कम नहीं पड़ेगा।

जिस ईश्वर ने इतनी अच्छा वर्षा दी है, उस ईश्वर का आभार जताना जरूरी है। उसे याद करना जरूरी है, तो कांवड़ यात्रा पर निकलना पड़ता है। अपने घर से किसी पवित्र जलस्रोत की ओर, किसी पवित्र नदी या जलाशय की ओर बढऩा होता है। वाहन या पैदल, कैसे भी जाने की परंपरा है। भारत में कांवड़ के मार्ग तय हैं, जिन पर जगह-जगह भोजन-प्रसाद, सेवा, चिकित्सा, विश्राम की मुफ्त व्यवस्था होती है। कांवड़ यात्रियों की सेवा को भी शिव उपासना का हिस्सा माना गया है। भारत में एक अलग ही माहौल होता है। देश में शिव से जुड़े जितने भी स्थान हैं, वहां कांवड़ यात्रियों का तांता लगा रहता है। इस काल में बाबा धाम, देवघर और हरिद्वार की विशेष महिमा होती है। लाखों कांवड़ यात्री सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने-अपने निकटवर्ती जलतीर्थों तक पहुंचते हैं और फिर शिव को जल अर्पित करते हैं।

जलस्रोत या जलतीर्थ से जल लेकर शिव को चढ़ाते हुए लौटना और अपने निवास के पास के शिवलिंग पर जल चढ़ाना भारत में एक परंपरा है। यह सच्चा आभार प्रदर्शन है।


शिव और जल का संबंध

प्रकृति का मूल स्रोत है जल। इस्लाम में भी कहा गया है कि जीवन जल से ही उपजा। एक प्राचीन कथा है, भारत में एक समय जल का अभाव हो गया था। राजा भगीरथ ने जल के लिए तप किया, ईश्वर प्रसन्न हुए। यह तय हुआ कि पवित्र जलधारा देवी गंगा को स्वर्ग से धरती पर आना होगा। जल में बड़ा वेग होता है, गंगा में भी बहुत वेग था। वेग इतना था कि पृथ्वी पर जलप्लावन का खतरा था। ऐसे में भोले भंडारी और मनुष्यता के परमप्रेमी भगवान शिव ने कहा कि गंगा जब धरती पर आएंगी, तब पहले मैं उसे धारण करूंगा। जैसे संसार की भलाई के लिए शिव ने अमृत मंथन के समय विष पान को स्वीकार किया था, ठीक उसी तरह वेगवती गंगा को धारण करने के लिए शिव ही आगे आए।

उन्होंने अपनी जटा में गंगा को धारण किया और फिर गंगा को धरा पर प्रवाहित किया। चूंकि स्वयं शिव की जटा में गंगा जी को उतरना था, तो वे भी बहुत संभलकर, लोक-लाज, शालीनता से भरकर उतरीं।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सृष्टि के प्रारंभ में गंगा नदी नहीं थी। वह बाद में जन्मीं और भारत वर्ष के एक विशाल भूभाग को तृप्त किया। आज वह भारत और बांगलादेश, दोनों देशों में बहती हुई बंगाल की खाड़ी अर्थात सागर में जा मिलती हैं।


गंगा की महिमा

गंगा नदी संसार की पवित्रतम नदी है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। संसार में नदियां तो हजारों हैं, लेकिन गंगा संसार की अकेली नदी है, जिसका जल कभी खराब नहीं होता। इसके जल की लोग पूजा करते हैं, घरों में वर्षों वर्ष तक रखते हैं, विशेष पूजा के समय उसका प्रयोग करते हैं। संसार से जब कोई सदा-सदा के लिए जाता है, तो उसे गंगाजल की बूंद चखाने-चटाने की परंपरा भारत में रही है। गंगा को भारत का उच्चतम न्यायालय भी जीवित हस्ती मानता है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि शिव के महीने सावन में गंगा नदी में स्नान का विशेष महत्व है। गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक लोग गंगा तट पर उमड़ पड़ते हैं और जयकारे करते हैं – हर-हर गंगे, हर-हर गंगे।

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