विजयादशमी
अच्छाई की जीत का महा–पर्व
राम जैसा पौराणिक- धार्मिक चरित्र अनुपम अतुलनीय है। संसार में किसी की भी तुलना राम से नहीं की जा सकती। पूरी सभ्य परंपरा और मानवीयता को वे ऊंचाइयों पर पहुंचा देते हैं। पुत्र, भाई, पति, पिता, राजा के रूप में उनका चरित्र भारत के लगभग हर दूसरे घर में गाया और पूजा जाता है। वे आदर्श चरित्र के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। विजयादशमी या दशहरा का पर्व राम के पराक्रम के कारण ही पूरी दुनिया में मनाया जाता है।
राम क्यों विजयी हुए?
राम चरित्र से श्रेष्ठ थे। राम ने अपने सारे कर्तव्य ठीक से निभाए। वे हर किसी का सम्मान करते थे। राम ने मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों से भी खूब प्रेम किया। वे जाति और जातीयता से ऊपर रहकर निर्णय लेते थे। वे इस नियम को जीते थे कि प्राण जाए पर वचन न जाए। वे सबके लिए प्रेम, दया से भरे हुए थे। उन्होंने युद्ध जीतकर दिल जीते। वे साम्राज्यवादी नहीं थे। उन्होंने हर मर्यादा और गरिमा का पालन किया। उनके पिता ने अनेक शादियां की थी, लेकिन स्वयं राम ने राजा होते हुए भी केवल सीता जी से विवाह किया। राम एक ऐसे राजा थे, जो प्रजा में उच्च मर्यादा बनाए रखने के लिए स्वयं के सुख का भी त्याग कर देता है। उनका जीवन संसार के लिए था। उनका कोई शत्रु नहीं था। उन्होंने स्वयं किसी से शत्रुता नहीं की। वे जीवन भर सच्चाई और अच्छाई के लिए समर्पित रहे। वे राजा थे, लेकिन उनके पुत्र एक ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में पले बढ़े थे। एक पुत्र ने राम की जगह राजपाट संभाला, तो एक पुत्र जगत के कल्याण के लिए ऋषि हो गया। राम के पास हनुमान जी जैसे श्रेष्ठ वानर किन्तु महान सेवक हैं, जो अत्यंत बलशाली हैं जिनसे किसी भी तरह की गलती असंभव है। राम में किसी प्रकार का भी अहंकार नहीं है। वे प्रकृति का पूरा सम्मान करते हैं, सहज और सरल हैं। वे आदर्श मानवीय आचरण के प्रतिमान या प्रतीक हैं।
दुनिया राम से क्या सीखे ?
राम को भारतीय संस्कृति में मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है। उन्होंने सभी मर्यादाओं का पालन किया। पुत्र, भाई, मित्र, राजा के रूप में उनका चरित्र आदर्श है, उनके जैसा न तो कोई पुत्र हुआ है, न भाई, न मित्र और न राजा। उनके पति और पिता रूप को लेकर बहस चलती रहती है। कई विद्वान उनके पति और पिता रूप में कमी निकाल देते हैं, तो कई विद्वान यह सिद्ध कर देते हैं कि वे पति के रूप में भी आदर्श हैं, क्योंकि राजा होते हुए भी उन्होंने ही दुनिया में एक ही विवाह करने की परंपरा डाली। सीता जी का त्याग कर दिया, लेकिन फिर विवाह नहीं किया। पिता के रूप में वे इसलिए मान्य हैं कि उनके जो पुत्र वनवासी थे, उन्हें राम जी ने पहले युवराज और फिर राजा बनवा दिया। उन्होंने अपने जीवन का एक लंबा समय वन में बिताया था, वे वनवासियों को मुख्यधारा में लाने वाले राजा या राज-प्रतिनिधि थे। राम जब वनवास पर गए, तो उनके छोटे भाई भरत ने राजगद्दी पर बैठना स्वीकार नहीं किया, वे राजमहल से दूर नंदीग्राम चले गए। वे राम जी की चरण पादुका को गद्दी पर रखकर स्वयं संन्यासी रूप में राजकाज देखने लगे। यह कहा जाता है कि राम राज्य की शुरुआत राम के वन जाते और भरत के संन्यासी रूप में राजकाज देखने के साथ ही हो गई थी। राम का अपने भाइयों पर पूर्ण विश्वास था और भाइयों ने भी राम जी को शिकायत का अवसर नहीं दिया।
रावण क्यों पराजित हुआ?
रावण असुरों का राजा था। लंका नगरी और राजपाट उसने लड़कर जीता या छीना था। वह एक ब्राह्मण ऋषि का पुत्र था, लेकिन आचरण में वह ऋषि व ब्राह्मण विरोधी था। उसने हमेशा सत्ता और ताकत को ही सबकुछ माना। वह अहंकार से भरा हुआ था। उसने अपने पुत्रों को भी अंसारी बनाया। वह देवताओं का अपमान करता था। वह ग्रहों का अपहरण कर लेता था। उसके लिए उसकी इच्छा सर्वोपरि थी। अपने हित के लिए वह किसी को भी धोखा दे देता था। जहां भी जाता स्त्रियों का बलात अपहरण करके लाता था। स्त्री उसके लिए भोग की वस्तु थी। सीता जी का अपहरण रावण ने धोखे से किया था। राम के निवेदन के बावजूद उसने सीता जी को नहीं लौटाया। वह पोथी पढ़ा विद्वान था, लेकिन वह विवेक और अच्छाई से रहित था। वह अपने परिजनों की हर अच्छी सलाह को भी नकार गया। अच्छी सलाह देने वाले सगे भाई विभीषण को भरी सभा में लात मारकर राज्य से निकाल कर अपना शत्रु बना लिया। वह अपनी पराजय के बारे में जब आश्वस्त हो गया, तब भी सुधरना स्वीकार नहीं किया। अपनी किसी गलती को उसने मरते दम तक अहंकारी होने के कारण स्वीकार नहीं किया। वह राम की मर्यादापूर्ण मंशा समझने में नाकाम रहा। वह यह नहीं जान पाया कि राम अच्छाई के शासन के लिए लड़ रहे हैं । उसे राम ने सुधार के अनेक मौके दिए, लेकिन वह यह नहीं समझ पाया कि राम असुरों के विरोधी नहीं हैं। राम असुर विरोधी होते तो रावण के छोटे भाई को राजा बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
रावण ने अपनी विद्या का दुरुपयोग किया। रावण ने शिव से वरदान लिया लेकिन इसकी चिंता कभी नहीं की कि शिव की इच्छा क्या है। भोग ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया था। भोग की प्राप्ति के लिए वह किसी भी मर्यादाहीन सीमा तक जाते सकता था। उसने अपने भोग के लिए अपने परिवार को मरवा दिया। उसे जनभावना की कोई परवाह नहीं थी। उसका चरित्र मानवीय कल्याण के लिए प्रेरक नहीं है। वह विनाश और अनैतिक आचरण का प्रतीक है। इसके अंत में ही जगत का कल्याण है।